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________________ * ६ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ** पर आरूढ़ होकर क्षेम, शिव और अनुत्तर सिद्धिलोक को पा लोगे। बस, समयमात्र भी प्रमाद न करके सम्बुद्ध, उपशान्त एवं संयत होकर ग्राम-नगरों में विचरण करते हुए शान्तिमार्ग (दशविध श्रमणधर्म पथ) की वृद्धि करो। इस प्रकार सर्वज्ञ वीतराग प्रभु का उपदेश सुनकर गौतम स्वामी सर्वथा अप्रमत्त बनकर राग-द्वेष का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। यह है अप्रमाद-संवर में बाधक-साधक तत्त्वों का तथा उसकी उपयोगिता का चिन्तन और उसके आचरण से मोक्षपद = परमात्मपद की प्राप्ति का अनुभवसिद्ध चित्रण। 'निशीथचूर्णि' में तो स्पष्ट कहा गया है कि "जितने भी शुभाशुभ कर्मबन्ध होते हैं, वे चाहे किसी भी माध्यम से हुए हों, उनके.मूल में प्रमाद होता है।"२ सर्वसाधारण साधकों को उन्होंने निर्देश दिया-“अनन्त जीवन-प्रवाह में मानव-जीवन को बीच का एक सुअवसर जानकर धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे।"३ अप्रमाद के लिये मोहनिद्रा में सुप्त लोगों के . बीच रहते हुए भी सर्वथा जाग्रत रहो नीतिकारों का यह कथन कितना सत्य है-"गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्।"४ अर्थात् मृत्यु ने मानो केशों को पकड़ रखा है, यह सोचकर (प्रमाद का त्याग करके अप्रमत्तभाव से) शुद्ध धर्म का आचरण करो। जब साधक मौत को साक्षात् खड़ी देखता है, तब वह जरा-सा भी प्रमाद नहीं करता। भगवान महावीर की इस देशना को वह जीवन में अपना लेता है-“अपने कदमों को फूंक-फूंककर रखो; इस संसार में पद-पद पर (धन-जन आदि सजीव-निर्जीव पदार्थों के साथ) राग-द्वेषरूप बन्धन का जाल बिछा हुआ है, ऐसा मानकर परिशंकापूर्वक विचरण करो। मोहनिद्रा में सोये हुए लोगों के बीच रहते हुए भी आशुप्रज्ञ साधक (कर्ममुक्ति-साधक) सब प्रकार से जाग्रत रहकर जीए। (प्रमाद का क्षणभर भी) विश्वास न करे। काल अत्यन्त भयंकर है और शरीर निर्बल है, अतः भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त (प्रति क्षण सावधान) होकर विचरण करे।"५ १. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का द्रुमपत्रक नामक १०वाँ अध्ययन २. पमायमूलो बंधो भवति। -निशीथचूर्णि ६६८९ ३. अंतरं च खलु इमं संपेहाए, धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए। -आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. १ ४. हितोपदेश ५. चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मन्नमाणो॥७॥ सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिय आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरऽपमत्ते॥६॥ -उत्तराध्ययन, अ. ४, गा. ७, ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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