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ॐ ४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
पर चला।" संन्यासी के मन में था कि यह बात सुनते ही राजा मेरी निःस्पृहता पर फिदा हो जाएगा, परन्तु हुआ बिलकुल उलटा ही। संन्यासी की बात पूरी होते ही राजा खिलखिलाकर हँस पड़ा। संन्यासी ने हँसने का कारण पूछा तो राजा ने स्पष्टीकरण किया कि मेरी जिज्ञासा शान्त हो गई। मैंने समझा था कि “आप कैसे एकाएक संन्यासी बन गए?" परन्तु आपके इस व्यवहार और बातचीत पर से मुझे स्पष्ट ज्ञात हो गया कि आपने सिर्फ कपड़े ही बदले हैं। आप संसारी (गृहस्थ) के कपड़ों में जितने अहंकारी थे, उतने ही अहंकारी आज भी हैं। मैंने वैभव के प्रदर्शन से अपना अहंकार पुष्ट किया है तो आपने त्याग के प्रदर्शन से अपना अहंकार पुष्ट किया है। इतना बदलाव जरूर हुआ है। बोतल बदली है, उसमें (मदरूपी) मद्य तो वही का वही है।"१ जान-बूझकर किये गए प्रमाद से साधना नष्ट
साधक के तन्दुरुस्त शरीर में पूर्वकृत कर्मोदयवश हाटफल द्वारा अचानक मौत आ सकती है, परन्तु जो साधक जान-बूझकर प्रमाद के उन दूतों का थाल सजाकर स्वागत करता है, बुलाता है, वह तो प्रति क्षण अपने भावप्राणों की हत्या कर डालता है। इसीलिए भगवान महावीर ने प्रत्येक छोटे-बड़े साधक को चेतावनी के स्वर में कहा-“(कर्मविज्ञान में) कुशल साधक को प्रमाद नहीं करना चाहिए।"२ समुद्र में तैरने वाले को अथवा कार, बस या ट्रेन चलाने वाले व्यक्ति को एकाध पल के लिए भी नींद का झौंका आ जाय अथवा गप्पों में मशगूल होकर या मद्यपान के नशे में वह होश भूल जाय तो तत्काल दुर्घटना हो सकती है और वह उन्हें मौत की नींद में सुला सकती है या उन्हें घायल या पीड़ित कर सकती है। उसी प्रकार कर्ममुक्ति के साधक को भी एकाध क्षण के लिए भी अकारण आया हुआ प्रमाद उसकी साधना के भगीरथ पुरुषार्थ को चौपट कर सकता है। स्कन्दक मुनि के ४९९ शिष्यों को पालक मंत्री द्वारा घाणी में पिलाया जा रहा था, तब तक उन्हें मोहजन्य प्रमाद नहीं आया, परन्तु अन्त में जब सबसे छोटे शिष्य को घाणी में पिलाया जाने लगा, तब उन्हें मोह तथा आवेशजनित प्रमाद आ गया। उन्होंने
असमाधिपूर्वक मरकर अपनी वर्षों की साधना जरा-से प्रमाद के कारण मिट्टी में मिला दी।३
१. 'दिव्यदर्शन', दि. ३-३-९० (मुनि रलसुन्दर विजय जी) के लेख से भाव ग्रहण, पृ. १८३-१८४ २. अलं कुसलस्स पमाएणं।
-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. २, उ. ४ ३. देखें-निशीथचूर्णि एवं त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में खंधककुमार (स्कन्दक) मुनि की कथा
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