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________________ * निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप ® २२७ ॐ भी तामली तापस की तरह अपने ज्येष्ठ-पुत्र को गृहभार सौंपकर दानामा-प्रव्रज्या ग्रहण की। तामली की तरह वह भी बेले-बेले तप करके पारणा करता था, आतापना भी उसी तरह लेता था। पारणे के दिन चार खानों वाला स्वनिर्मित काष्ठ-पुटक (टिफिन) लेकर भिक्षाचरी करता था। इस काष्ठ-पुटक के पहले खाने में जो भिक्षा प्राप्त होती, वह मार्ग में मिलने वाले पथिकों को, दूसरे खाने में प्राप्त खाद्य-वस्तु कौओं और कुत्तों को और तीसरे खाने में प्राप्त खाद्य-वस्तु मछलियों और कछुओं को दे देता था तथा चौथे खाने में प्राप्त भिक्षान्न का स्वयं आहार करता था। दान-प्रधान क्रिया ही दानमयी या दानामा-प्रव्रज्या का मूल उद्देश्य था। पूरे बारह वर्ष तक दानामा-प्रव्रज्या-पर्याय का पालन करने तथा तपश्चर्या और आतापना पर जब शरीर रूक्ष, शुष्क, दुर्बल हो गया तो पूरण बालतपस्वी ने पादपोपगमन संथारा करके एक मासिक संलेखना की आराधना से अपनी आत्मा को भावित किया और यथासमय कालधर्म प्राप्त करके चमरचंचा राजधानी में चमरेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। पूरण बालतपस्वी द्वारा की हुई तपस्या तथा दानामा-प्रव्रज्या सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानरहित होने से अकामनिर्जरा ही थी, किन्तु बाद में इन्द्र-पद प्राप्त होने के पश्चात् सम्यग्दृष्टि होने से वह वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर भविष्य में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और सर्वकर्ममुक्त होगा।' आचार्यादि के प्रत्यनीक श्रमण भी अकामनिर्जरा वाले हैं इसके साथ ही 'उववाईसूत्र' में उन श्रमणों की भी वृत्ति-प्रवृत्ति को अकामनिर्जरा और अनाराधकता की कोटि में परिगणित किया गया है, जो आचार्य, उपाध्याय, कुल और गण के प्रत्यनीक (प्रतिकूल) होते हैं, १. ..जंबूद्दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले बेभेले नामं सन्निवेसे पूरणे नामं गाहावती परिवसति। जहा तामलिस्स वत्तव्वया तहा नेतव्वा, नवरं, चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहं गहाय सयमेव मुंडे भवित्ता दाणामाए पव्वज्जाए पव्वइए वि य णं समाणे तं चेव जाव आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ। सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहयं गहाय घरसमुदाणस्स मिक्खायरियाए अडेत्ता-जं मे पढमे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं पंथियपहियाणं दलइत्तए; जं मे दोच्चे पुडए पडइ, कप्पइ मे काक-सुणयाणं दलइत्तए, जं मे तच्चे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं मच्छकच्छभाणं दलइत्तए; जं मे चउत्थे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं अप्पणा आहारं आहारित्तए एवं संपेहेइ। तं चेव निरवसेसं, जाव जं से चउत्थे पुडए पडइ तं अप्पणा आहारं आहारेइ। तए णं से पूरणे बालतवस्सी तेणं बालतवोकम्मेणं तं चेव, जाव बेभेलस्स सन्निवेसस्स दाहिण-पुरथिमे दिसीभागेसंलेहणा झूसणा-झूसिए भत्तपाण पडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे दुवालसवासाइं परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए. अत्ताणं झूसेत्ता कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए जाव इंदत्ताए उववन्ने। -भगवती ३/२/१९-२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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