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________________ * २२८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 आचार्य-उपाध्याय के। अपयश, अवर्ण (निन्दा) और अपकीर्ति करते हैं, बहत-सी मिथ्या बातें उनके सम्बन्ध में उठाते हैं, मिथ्यात्व के अभिनिवेश (दुराग्रह) के कारण स्व-पर और उभय को बरगलाते हैं, भ्रान्ति फैलाते हैं, इस प्रकार बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करके यथासमय काल करके वे लान्तककल्प (देवलोक) में किल्विषीदेवों के रूप में उत्पन्न होते हैं, अन्तिम समय में अपने दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमणादि न करने से वे विराधक' होते हैं, आराधक नहीं। ... आत्मोत्कर्षाभिलाषी श्रमण भी अकामनिर्जरा से युक्त अनाराधक इसी सूत्र में आगे कहा गया है कि जो श्रमण प्रव्रजित होकर आत्मोत्कर्षक (अपनी बड़ाई करने वाले) पर-निन्दक, भूतिकर्मिक तथा जो बार-बार कौतुक (आश्चर्यजनक जादूगरी) करते हैं, वे इस प्रकार की प्रवृत्ति करते हुए बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करते हैं, अन्तिम समय में अपने दोषों की आलोचना किये बिना ही काल करके उत्कृष्टतः अच्युत देवलोक में आभियोगिक देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे अकामनिर्जरा करके परलोक अनाराधक होते हैं। इसी प्रकार वे आजीविक श्रमण भी अकामनिर्जरा करने वाले होते हैं जो अपनी भिक्षाचरी दो घरों के अन्तर से, तीन घरों के अन्तर से या सात घरों के अन्तर से करते हैं, जो अपने शरीर के अधोभाग पर कमलपत्र वेष्टित कर लेते हैं, कई घरों से सामुदायिक रूप से भिक्षा लेते हैं, विद्युत् के समान चंचल होते हैं तथा ऊँट के समान गर्दन ऊँची करके चलते हैं, इस प्रकार के श्रमण भी बहुत वर्षों तक उक्त पर्याय में रहकर अज्ञानपूर्वक कष्ट सहकर श्रमण-जीवन में लगे दोषों की आलोचना किये बिना ही यथाकाल कालधर्म प्राप्त करके उत्कष्टतः अच्युत कल्प देवलोक तक उत्पन्न होते हैं, किन्तु परलोक में अनाराधक होते हैं। १. से जे पव्वइया समणा भवंति, तं.-आयरिय - उवज्झाय-कुल-गण-पडिणीया आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारगा, अवण्णकारगा, अकित्तिकारगा बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिँ मिच्छत्ताभिनिवेसेहिं च अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय-अपडिक्कंता कालंकिच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिदिवसिएसु देवकिव्विसयत्ताए उववत्तारो भवन्ति। अणाराहगा। ___ -औपपातिकसूत्र ४०/१५ २. जे इमे पव्वइया समणा भवति, तं.-अत्तुक्कोसिया परपरिवाइया भूइकम्मिया, भुज्जो २ कोउयकारगा तस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिक्कंता कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे आभिओगिएसु देवसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। परलोगस्स अणाराहगा। सेसं तं चेव। -वही ४०/१८ ३. . से जे इमे - - - - आजीविका भवंति, तं.-दुघरंतरिया, तिघरंतरिया, सत्तघरंतरिया उप्पलबेंटिया, घरसमुदाणिया बिज्जु-अंतरिया उट्टियासमणा, तेणं विहरमाणा बहुई वासाइं परियायं पाउणित्ता उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। बावीसं सागरोवमाई ठिई। अणाराहगा, सेसं तं चेव। -वही ४0/१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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