SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप ॐ २२५ * विविध व्रतधारी तथा विविध प्रकार के तापस भी अकामनिर्जरायुक्त इसी सूत्र में आगे कहा गया है कि जो उदक के साथ दो, तीन, सात या ग्यारह वस्तुओं का सेवन करत हैं, इन्द्रियसंयमी हैं, गोव्रती हैं, गृहस्थधर्मी, धर्मचिन्तक हैं तथा एकमात्र सरसों के तेल के सिवाय दूध, दही आदि नौ विगइयों (विकृतियों) में से किसी भी विगई का सेवन नहीं करते; ऐसे अल्प इच्छा वाले मानव भी उत्कृष्ट ८४ हजार वर्ष की स्थिति वाले वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं; किन्तु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान तथा कर्मक्षय द्वारा आत्म-शुद्धि के लक्ष्य से रहित होने से अकामनिर्जरा करते हैं, इसलिए आराधक नहीं होते। इसी प्रकार गंगातटवासी वानप्रस्थ, अग्निहोत्रिक, याज्ञिक, नदियों में डुबकी लगाने वाले, बार-बार गात्रप्रक्षालन करने वाले, दक्षिणतटवासी, उत्तरतटवासी, शंखध्वनि करने वाले, गंगातट पर ध्वनि करने वाले, मृगलुब्धक (मृग का शिकार करने वाले), हस्तितापस, दंडधारी, दिशा-प्रोक्षक, जलवासी, बिलवासी, बिल्वफलाशी, वृक्षमूलवासी, पानी, वायु, शैवाल, मूल, कंद, त्वचा (छाल), पत्ते, फूल अथवा बीज का आहार करने वाले, पके, सूखे या गिरे हुए कंद, मूल, त्वचा, पुष्प, फल का आहार करने वाले, जलाभिषेक करने से कठिन गात्र वाले, आतापना लेने वाले, पंचाग्नि ताप तपने वाले, विविध प्रकार के तापस बहुत वर्षों तक तापसपर्याय का पालन करके मरकर एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की स्थिति वाले ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न होते हैं। परन्तु वे होते हैं अनाराधक ही, 'क्योंकि इहलोक-परलोक-फलाकांक्षा, प्रसिद्धि, यशकीर्ति या स्वर्गकामना आदि से मिथ्यात्ववश अज्ञानपूर्वक इतना तप या कष्ट-सहन करते हैं।' ___ 'भगवतीसूत्र' में मौर्यपुत्र तामली तापस का वर्णन है। उसने प्राणामा प्रव्रज्या अंगीकार की। प्राणामा प्रव्रज्या के नियमानुसार वह इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, प्रशान्तरूपा आर्या (पार्वती), रौद्ररूपा (महिषासुरमर्दिनी) चण्डी को, राजा, युवराज, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी, सार्थवाह, यहाँ तक कि चाण्डाल, कुत्ता, कौआ आदि को प्रणाम करता था। उच्च व्यक्ति को उच्च रीति से १. (क) से जे पुण इमे गामागर-नगर - सन्निवेसेसु मणुया भवंति, तं.-दग-बिइया.. दग-एगारसमा गोयमा गोव्वइया नो कप्पइ इमाओ नवरस-विगईओ आहारित्तए णण्णत्थ एक्काए सरिसव-विगईए, ते मणुआ अपिच्छा तं चेव सव्वं । . (ख) से जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति, तं.-होत्तिया जण्णई, . उम्मज्जगा संपक्खाला मिगलुद्धगा हत्थितावसा, उदंडगा दिसापोक्खिणो रुक्खमूलिया। अंबुभक्खिणो, वाउभक्खिणो मूलाहारा, कंदाहारा आयावणाहिं पंचग्गि-तावेहिं इंगालसोल्लियं कंडुसोल्लियं कट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा"अणाराहगा। -औपपातिकसूत्र ३७/९-१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy