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________________ ॐ २२४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 ये मनुष्य भी अकामनिर्जरा युक्त होते हैं : क्यों और कैसे ? ____ 'औपपातिकसूत्र' के अनुसार ऐसे मनुष्य भी अकामनिर्जरा से युक्त होते हैं, जो ग्राम-नगरादि में उत्पन्न होकर किसी अपराध के फलस्वरूप हथकड़ियाँ-बेड़ियाँ डालकर कारागार में बंद कर दिये जाते हैं, किन्हीं के कान, नाक, हाथ, पैर, ओठ, जीव, सिर, मुख, कमर, पीठ आदि का छेदन-भेदन कर दिया जाता है या वे स्वयं के या दूसरों के नाक-कान आदि काट डालते हैं। हृदय को चोट पहुँचाते हैं, आँख फोड़ देते हैं, दाँत तोड़ देते हैं, कपड़े फाड़ देते हैं, गर्दन मरोड़ देते हैं या स्वयं इन अंगों को तोड़-फोड़ लेते हैं या किसी अपराध के कारण मारा-पीटा, घसीटा या लटका दिया जाता है, विविध प्रकार से पीड़ित किया जाता है, शूल क्षार द्वारा पीड़ित करके या दावाग्नि में प्रज्वलित करके या विविध प्रकार से यातनाएँ दी जाती हैं अथवा स्वयं ही शरीर पर कीचड़ लपेट लेते हैं, ठंडे पानी में खड़े रहते हैं, कीचड़ में धंस जाते हैं तथा गिरिपतन, तरुपतन, अग्नि-प्रवेश, विषभक्षण, शस्त्र से भेदन, गृद्धपृष्ठ, वैहानस आदि विविध प्रकार से आत्महत्या कर लेते हैं अथवा किसी दुर्घटना से या घोर जंगल में भटक जाने से या दुर्भिक्ष से मृत्यु पाते हैं, ये और इस प्रकार के स्वेच्छा से नाना कष्ट सहते हैं, कष्ट सहते समय उनके परिणाम असंक्लिष्ट होते हैं; (किन्तु इन सबका यह कष्ट-सहन सम्यग्दृष्टि एवं सम्यग्ज्ञानपूर्वक आत्म-शुद्धि के लक्ष्य से नहीं होता, कई लोगों की इहलोक में यशकीर्ति की, परलोक में स्वर्गादि की फलाकांक्षा (कामना) होती है, इस कारण उनकी कर्मनिर्जरा भी अकाम होने से) वे भी वाणव्यन्तर जाति के देवों में १२ हजार वर्ष की स्थिति वाले विराधक देव होते हैं।' पिछले पृष्ठ का शेष(उ.) गोयमा ! अत्थेगइया देवे सिया, अत्थेगइया नो देवे सिया। जे इमे गामागर सण्णिवेसेसु अकाम-तण्हाए, अकाम-छुहाए, अकाम-बंभचेरवासेणं, अकामअण्हाणग-सियाभव-दंस-मसग-सेय-जल्ल-मल-पंक-परितावेणं अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसेंति, अप्पतरो परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तेसिं देवाणं दसवाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता। परलोगस्साराहगा (न भवंति)। –औपपातिकसूत्र ३७/५ १. से जे इमे गामागर-नगर सण्णिवेसुसु मणुया भवंति, तं जहा-अंडुबद्धगा, णियलबद्धगा हत्थछिन्नगा - लंबियया घंसियया फाडियया, पीलियया सुलाइयया, सूलभिन्नगा, खारवत्तिया - दवग्गिदड्ढगा, पंकोसण्णगा, पंकेखुत्तगा, वलयमयगा, वसट्टमयगा, णियाणमयगा, अंतोसल्लमयगा, गिरिपडियगा, तरुपडियगा, जलपवेसिगा, जलपापवेसिगा, विरुभक्खियगा, सत्थोवाडियगा - कतारमयगा, दुब्भिक्खमयगा असंकिलिट्ठ-परिणामा ते कालंमासे कालंकिच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। (तत्थ) वारसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। (ते मणुया वि) परलोगस्स आराहगा (न भवंति)। -वही ३७/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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