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________________ ॐ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप २२३ 8 एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव भी अकामनिर्जरा वाले होते हैं प्रश्न होता है-नरक के नैरयिक तो पूर्वबद्ध घोर चिक्कण कठोर पापकर्मवश दीर्घकाल तक दुःख भोगकर भी अत्यल्प अकामनिर्जरा कर पाते हैं, परन्तु जो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक तथा पंचेन्द्रिय मनुष्य हैं, वे नारकों जितने पूर्वबद्ध घोर पापकर्मों से युक्त नहीं होते, फिर भी वे असंयत, अविरत होते हैं, पापकर्मों के त्याग-प्रत्याख्यान से रहित होते हैं, इसलिए वे नैरयिकों से कुछ अधिक निर्जरा वाले होते हैं, किन्तु उनकी वह निर्जरा भी अकाम होती हैं, इसी कारण वे वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। वे किस-किस निमित्त से बरबस, विवश होकर अज्ञानपूर्वक कष्ट सहते हैं ? कष्टों को संक्लिष्ट होकर भोगते हैं ? उन कष्टों के भोगने से कर्मों की जो निर्जरा होती है, उनकी वह निर्जरा अकाम क्यों है? इसका समाधान भी 'औपपातिकसूत्र' में इस प्रकार किया गया है-“वे जीव ग्राम, नगर आदि में उत्पन्न होकर अकाम (अनिच्छा और अज्ञानपूर्वक आत्म-शुद्धि के भाव से रहित होकर) तृषा, क्षुधा, ब्रह्मचर्य-पालन, अस्नान-शीततापकष्ट से, दंश-मशक-प्रस्वेद-जल्ल-मल-पंक आदि के परिताप से (अपने-अपने पूर्वबद्ध कर्मानुसार) अल्पतर या अधिकतर काल तक अपनी आत्मा में परिक्लेश पाते हैं (संतप्त होते हैं) (जिसके फलस्वरूप नारकों से कुछ अधिक अकामनिर्जरा होने से) वे यथाकाल मरकर वाणव्यन्तर जाति के देवों में से किन्हीं एक देवों में उत्पन्न होते हैं, जिनकी आयुस्थिति दस हजार वर्ष की होती है। चूंकि उनकी निर्जरा अकाम होती है, इस कारण वे देव परलोक के आराधक (आत्म-शुद्धिरूप मोक्ष मार्ग के आराधक) नहीं होते। कई देव नहीं भी होते, वे तिर्यंचादि गतियों में कष्ट पाते हैं। "पिछले पृष्ठ का शेष(ख) (प्र.) जीवे णं भंते ! असंजए, अविरए, अपडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते ओसण्ण-तस-पाण-घाई कालमासे कालं किच्चानेरइएसु उववज्जइ? (उ.) हंता उववज्जइ। -औपपातिकसूत्र ३७/४ (ग) देखें-सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पंचम अध्ययन में नरयविभत्ति के दोनों उद्देशकों में नारकों को प्राप्त होने वाले विविध दुःखों का वर्णन (घ) देखें-उत्तराध्ययनसूत्र के मृगापुत्रीय नामक १९वें अध्ययन में ‘सो बेइ अम्मापियरो एवमेयं जहा फुडं ' इस प्रकार की ४४वीं गाथा से लेकर ७३वीं गाथा तक . मृगापुत्र द्वारा उक्त नरक में प्राप्त होने वाले दुःखों का वर्णन . १. (प्र.) जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अपडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे इओ चुए पेच्चा देवे सिया? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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