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________________ * २२० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 ____ आगे के पृष्ठों में हम शास्त्रीय सैद्धान्तिक दृष्टि से अकामनिर्जरा के-अज्ञान और मिथ्यादर्शनपूर्वक होने वाली निर्जरा के विविध रूपों का दिग्दर्शन करा रहे हैं, ताकि कर्ममुक्ति के साधक को सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा का अन्तर स्पष्ट रूप से समझ में आ जाए।' ___ सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा के अन्तर को स्पष्टतः समझाने के लिए 'भगवतीसूत्र' में एक प्रश्नोत्तर द्वारा समाधान किया गया है। वह संक्षेप में इस प्रकार है-“अन्न के प्रति निःस्पृह-अन्नगिलायक अथवा अन्न के बिना ग्लानि पाकर. जैसे-तैसे नीरस, अन्त, प्रान्त, तुच्छ आहार का सेवन समभावपूर्वक कर लेने वाले कूरगडुक श्रमण के समान अन्नगिलायक चतुर्थभक्त (उपवास), षष्ठभक्त (बेला), अष्टमभक्त (तेला) या दशमभक्त (चौला) (बीच-बीच में पारणा करते हुए लगातार) करने वाला तपस्वी श्रमण निर्ग्रन्थ अल्पकाल और अल्पकष्ट में जितने कर्मों की (सकामरूप से) निर्जरा कर डालता है, उतनी निर्जरा (अकामरूप से) करने वाला नरक का नैरयिक क्रमशः एक वर्ष, बहुत वर्ष या सौ वर्षों में; सौ वर्ष, अनेक सौ वर्ष या हजार वर्षों में; एक हजार वर्ष, अनेक हजार वर्ष या एक लाख वर्षों में; एक लाख वर्ष, अनेक लाख वर्ष या एक करोड़ वर्षों में तथा एक करोड़ वर्ष, अनेक करोड़ वर्ष या कोटाकोटि वर्षों में भी नहीं कर पाता है।''रे यहाँ मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानी (विभंगज्ञानी) नैरयिक की अकामनिर्जरा के सम्बन्ध में यह बात समझनी चाहिए। सम्यग्दृष्टि एवं सम्यग्ज्ञानी (अवधिज्ञानी) नैरयिक सकामनिर्जरा ही करते हैं। नरक का नैरयिक अत्यन्त घोर वेदना करोड़ों वर्षों तक भोगने पर भी श्रमण निर्ग्रन्थ तपस्वी जितने अल्पकाल में बहुत कर्मों को क्षय क्यों नहीं कर पाता है ? इसके उत्तर में पाँच रूपकों द्वारा युक्ति से इस तथ्य को सिद्ध किया है। जैसे अत्यन्त जराजीर्ण, भूखा-प्यासा, थका-हारा कोई वृद्ध कोशम्ब वृक्ष की एक बड़ी, सूखी, गँठीली, चिकनी, टेढ़ी-मेढ़ी, गाँठ-गँठली जड़ पर एक भोंठे कुल्हाड़े से जोर-जोर से आवाज करता हुआ चोट करे तो भी उस लकड़ी के १. जं अन्नाणी कम्म खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उसासमित्तेण।। -बृहत्कल्पसूत्र, उ. २ २. जावतियं अनगिलायए, चउत्थभत्तिए छट्ठभत्तिए अट्ठमभत्तिए दसमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं णिज्जरेति, एवतियं कम्मं नरएसु नेरतिया वासेण वा, वासेहिं वा, वाससतेण वा; वाससतेण वा, वाससतेहिं वा, वाससहस्सेण वा; वाससहस्सेण वा, वाससहस्सेहिं वा, वास-सय-सहस्सेण वा; वास-सय-सहस्सेण वा, वास-सय-सहस्सेहिं वा, वासकोडीए; वासकोडीए वा, वासकोडीहिं वा, वासकोडाकोडीए वा मो खवयंति। -भगवतीसूत्र, श. १६, उ. ४, सू. १-७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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