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________________ * निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप २२१ बड़े-बड़े टुकड़े नहीं कर पाता ; वैसे की जिन्होंने पहले गाढ़, चिकने और कठोर पाप किये हैं, वे नरकों के नैरयिक दीर्घकाल तक अत्यन्त घोर वेदना भोगते हुए भी तपस्वी श्रमण निर्ग्रन्थों की तरह ( अत्यल्प वेदना अल्पकाल तक भोगकर ) महानिर्जरा और महापर्यवसान (मोक्षरूप फल) वाले नहीं हो पाते। जैसे कोई पुरुष एहरन पर जोर-जोर से शब्द करता हुआ हथौड़े की चोट मारता है, फिर भी वह एहरन के स्थूल पुद्गलों को तोड़ नहीं पाता ; इसी प्रकार पहले किये हुए गाढ़, चिकने और कठोर पापों वाले नैरयिक दीर्घकाल तक अत्यन्त घोर वेदना भोगते हुए भी निर्ग्रन्थ तपस्वी श्रमणों की तरह महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले नहीं होते । ( इसके विपरीत ) जिस प्रकार तरुण, बलिष्ठ, मेघावी यावत् निपुण शिल्पकार एक बड़े शाल्मली वृक्ष की गीली, अजटिल, गाँठरहित, सीधी, चिकनाई से रहित और आधार पर टिकी हुई गण्डिका (जड़) पर तीखे कुल्हाड़े से जोर-जोर से आवाज किये बिना ही प्रहार करे तो आसानी से ( थोड़ी ही देर में ) उसके बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है; इसी प्रकार जिन श्रमण निर्ग्रन्थ तपस्वियों ने अपने कर्म शिथिल बन्ध वाले, यथास्थूल यावत् निष्ठित कर दिये हैं, उनके वे कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और वे श्रमण निर्ग्रन्थ यावत् महानिर्जरा - महापर्यवसान वाले होते हैं। ( इसी प्रकार ) जैसे कोई पुरुष सूखे घास के पूले को यावत् अग्नि में डाले तो वह शीघ्र ही जल जाता है, इसी प्रकार उन श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म भी शीघ्र ही भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई पुरुष पानी की बूँद को तपाये हुए लोहे के कड़ाह पर डाले तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, वैसे ही श्रमण निर्ग्रन्थों के स्थूल कर्म भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं; जबकि नारक उतने ही कर्म लाखों, करोड़ों व कोटाकोटी वर्षों में भी क्षय नहीं कर पाते । ' '' राजवार्तिक' में भी बताया है - " मन-वचन-काय गुप्ति से युक्त होकर जो अनेक प्रकार के तप करता है, वह मनुष्य विपुल कर्मनिर्जरा कर लेता है ।" 'मूलाचार' का कथन है-" इन्द्रियादि - संयम और योग से युक्त होकर जो जीव अनेकविध तप करता है, वह बहुत-से कर्मों की निर्जरा कर लेता है ।"" ,२ १. देखें- भगवतीसूत्र, श. १६, उ. ४, सू. ७ में वह पाठ ( आ. प्र. स., ब्यावर से प्रकाशित), पृ. ५५४ २. (क) काय-मणो वचि-गुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अणेगविहं । सो कम्म- णिज्जराए विउलाए वट्टदे मणुस्सोत्ति || - राजवार्तिक ८/२३/७/५८४ में उद्धृत गाथा (ख) जम-जोगे जुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अणेगविधं । सो कम्म- णिज्जराए विलाए वट्टदे जीवो || Jain Education International For Personal & Private Use Only - मूलाचार, गा. २४ www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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