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________________ * निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप २१९ अकामनिर्जरा से कष्ट सहन अधिक, कर्मक्षय कम: कैसे ? तिर्यंच-भव में एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय तक के जीव विवश होकर अनिच्छा से, अज्ञानतापूर्वक नाना कष्ट सहन करते हैं। नरक में मिथ्यात्वी नारक जीव द्रव्यगत, क्षेत्रगत, कालगत एवं भावगत नाना कष्ट, आतंक, भय आदि का त्रास सहते हैं, परमाधामी असुरों द्वारा तथा परस्पर दी जाने वाली घोर यातनाएँ रोते-बिलखते सहते हैं। मनुष्यों में भी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी मनुष्य विवश होकर बीमारी, व्याधि, संकट, विपत्ति आदि का त्रास सहते हैं अथवा औपपातिकसूत्रानुसार कई तापस, साधक, बाबा, गैरिक आदि स्वेच्छा से अज्ञानपूर्वक मोक्ष या कर्मक्षय के उद्देश्य से विहीन होकर स्वर्गादि कामना या प्रसिद्धि लालसा से नाना प्रकार से कष्ट सहन करते हैं, हिंसामूलक पंचाग्नितप तथा अग्नि में हवन करते हैं, घंटों ठंडे जल में खड़े रहते हैं, बार-बार पानी में नहाते, डुबकी लगाते हैं, भूख-प्यास भी सहते हैं, लम्बी-लम्बी या कठोर तपस्या भी करते और पारणे में थोड़ा-सा आहार लेते हैं; परन्तु ये और इस प्रकार के अज्ञान या मूढ़तापूर्वक किये हुए तप या कष्ट सहन अकामनिर्जरा का ही पलड़ा भारी करते हैं। इससे न तो आत्म-शुद्धि होती है और न ही मोक्षफल प्राप्त होता है। अकामनिर्जरा, बालतप या विवशतापूर्वक कष्ट सहन से स्वर्गादि की प्राप्ति कदाचित् हो भी जाए, किन्तु उनका जन्म-मरणरूप संसार घटता नहीं, वह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है। यही कारण है कि ये और इस प्रकार के अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि जीव विविध प्रकार से प्रतिसमय अकामनिर्जरा करते रहने के बावजूद भी प्रति समय नये कर्म भी बाँधते रहते हैं । समस्त कर्मों का या आंशिक रूप से कर्मों का क्षय अथवा उनका निरोध तो तब हो जब कर्मों का आनव (आगमन) रुके और बन्ध कम हो तथा क्षय (निर्जरा सकामरूप से) अधिक हो अथवा अधिकाधिक तीव्र गति से कर्मों का क्षय (महानिर्जरा, तीव्रनिर्जरा) हो । ' अज्ञानी और ज्ञानी के कर्मक्षय करने में अन्तर तीव्र गति से सकामनिर्जरा के रूप में कर्मक्षय कैसे होता है ? इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए ‘बृहत्कल्पसूत्र' में कहा गया है - "जिन ( पूर्वबद्ध) कर्मों को अज्ञानी जीव बहुत-से कोटि वर्षों में क्षय कर पाता है; उन्हीं कर्मों को तीन गुप्तियों से युक्त (सम्यग्दृष्टि) ज्ञानी जीव एक श्वासोच्छ्वासमात्र काल में क्षय कर डालता है ।" १.. (क) : आत्मतत्त्वविचार' से भाव ग्रहण, पृ. ५०३ (ख) देखें- औपपातिकसूत्र में बालतपस्वियों आदि की अकामनिर्जरा का वर्णन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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