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ॐ २१८ * कर्मविज्ञान : भाग ७ ®
य क्या नहीं ?
आत्मा से कर्मों को पृथक् करने का ठोस उपाय
कर्मों को आत्मा से पृथक् करने अथवा कर्मों से मुक्ति पाने के लिए मुमुक्षु साधक को कर्मों को पकड़ने की जरूरत नहीं, किन्तु ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे वे आत्मा से अलग हो जाएँ। एक आचार्य ने कहा है
“मलं स्वर्णगतं वह्निहंसः क्षीरगतं जलम्।
यथा पृथक्करोत्येव, जन्तोः कर्ममलं तपः॥" -जैसे सोने के मैल को अग्नि दूर कर देती है; दूध में रहे हुए जल को हंस अलग कर देता है; उसी प्रकार प्राणियों की आत्मा पर लगे हुए कमल को तप दूर कर देता है। कहा भी है-"भवकोडिसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ।" -करोड़ों भवों में संचित किया हुआ कर्म भी तपस्या से नष्ट-निर्जरित हो जाता है, बशर्ते कि वह तप आत्म-शुद्धि, अहिंसादि तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक स्वेच्छा से किया गया हो। ऐसे तप से तथा नाना प्रकार कष्ट, उपसर्ग, परीषह आदि समभावपूर्वक सहने से ही कर्मों की सकामनिर्जरा होती है।' अब तक सब कर्मों का क्षय क्यों नहीं ?
इस सम्बन्ध में एक प्रश्न होता है कि सिद्धान्तानुसार प्रतिसमय जीव कर्मों की निर्जरा करता रहता है, ऐसी स्थिति में वह अब तक अपने समस्त कर्मों का क्षय क्यों नहीं कर पाया? इसका युक्तिपूर्वक समाधान एक रूपक द्वारा दिया जा रहा है-मान लो, एक कोठी में धान्य भरा है। उसमें से प्रतिदिन धान्य निकाला जाता रहे, साथ ही ऊपर से उसमें रोजाना धान्य पड़ता भी जाए तो वह कोठी कभी खाली नहीं हो सकेगी। वह कोठी खाली तभी होगी, जबं ऊपर से उसमें धान्य पड़ना बंद हो जाए। यही बात अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टि जीवों की निर्जरा के सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिए। उनके जीवन में पूर्वबद्ध कर्मों के उदय में आने पर वे उन कर्मों को बरबस, अनिच्छा से, हाय-हाय करते या रोते-बिलखते, दुःखी होकर भोगते हैं, अज्ञानपूर्वक भोगते हैं, बड़े-बड़े कष्टों को भी वे मूढ़तावश सहते हैं, इस प्रकार अनजाने में अज्ञानतावश सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास आदि कष्ट सहने से निर्जरा तो होती है, परन्तु वह बहुत ही अल्प और अकामनिर्जरा होती है। उस निर्जरा से जितने कर्मों का क्षय होता है, उनसे अधिक मात्रा में वे नये अशुभ कर्मों
का बन्ध कर लेते हैं। कई बार उन कष्ट देने वाले विभिन्न निमित्तों पर रोष, द्वेष, ईर्ष्या, कलह, युद्ध आदि करके वैर-परम्परा भी बाँध लेते हैं। इन सबकी निर्जरा को शास्त्रीय भाषा में अकामनिर्जरा कहा है।
१. (क) 'आत्मतत्त्वविचार' से भाव ग्रहण, पृ. ५०१
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३०, गा. ६
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