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ॐ २१० ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
मायि-मिथ्यादृष्टि नैरयिक महाकर्मादियुक्त
प्रश्न होता है-पूर्व पृष्ठों में बताये अनुसार नरक के नैरयिकों में जो मिथ्यादृष्टि होते हैं, वे महाकर्म, महाआसव, महाक्रिया और महावेदना वाले होते हैं; किन्तु नारकों में जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे कैसे होते हैं ? इसके लिए 'भगवतीसूत्र' में कहा गया है-नैरयिक दो प्रकार के होते हैं-मायि-मिथ्यादृष्टि उपपन्नक और अमायि-सम्यग्दृष्टि उपपन्नक। मायि-मिथ्यादृष्टि उपपन्नक नैरयिक महाकर्मतर यावत् महावेदनतर होते हैं और जो अमायि-सम्यग्दृष्टि नैरयिक होते हैं, वे अल्पकर्मतर यावत् अल्पवेदनतर होते हैं।
इसी प्रकार भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक जाति के देवों तथा मनुष्यों में भी दो-दो प्रकार समझने चाहिए-मायि-मिथ्यादृष्टि और अमायि-सम्यग्दृष्टि। ये सब भी द्विविध नारकों की तरह महाकर्मतर यावत् महावेदनतर तथा अल्पकर्मतर यावत् अल्पवेदनतर समझने चाहिए। मिथ्यादृष्टि अकामनिर्जरा कर पाते हैं, सम्यग्दृष्टि सकामनिर्जरा
निष्कर्ष यह है कि एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रिय जीवों को छोड़कर नारक, देव, मनुष्यों और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में जो मिथ्यादृष्टि हैं, वे महाकर्म, महाक्रिया, महानव और महावेदना वाले होने से बहुत ही अल्पनिर्जरा कर पाते हैं, वह भी अकामनिर्जरा ही। इसके विपरीत इनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे अल्पकर्मा, अल्पक्रिय, अल्पासव और अल्पवेदन होते हैं, इसलिए अधिक निर्जरा कर पाते हैं और वह भी सकामनिर्जरा यानी विशिष्ट श्रेयस्करी निर्जरा कर सकते हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव असंज्ञी होने से अकामनिकरण वेदना वेदते हैं ।
एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव तो अमनस्क होने के कारण अल्पकर्मा और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं, उनको प्रायः अल्पवेदना से होने से क्या निर्जरा महान् नहीं होती? इसके समाधान के लिए 'भगवतीसूत्र' में कहा गया है-ये जो असंज्ञी १. (क) नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं.-मायि-मिच्छाद्दिट्ठि-उववन्नगा य अमायि-सम्मद्दिट्ठि
उववन्नगा य। तत्थणं जे से मायि-मिच्छादिट्ठि-उववन्नए नेरतिए से णं महाकम्मतराए चेव जाव महावेदणतराए चेव। तत्थणं जे से अमायि-सम्मद्दिट्ठि-उववन्नए नेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव। दो भंते ! असुरकुमारी? एवं असुरकुमारा एवं एगिंदिय विगलिंदियवज्जा जाव वेमाणिया।
___ -भगवतीसूत्र, श. १८, उ. ५, सू. ५-६ (ख) एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में ऐसा अन्तर नहीं होता। वे एकान्त मायि-मिथ्यादृष्टि ही होते हैं।
-सं.
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