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ॐ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप ® २०५ ॐ
से बद्ध कर्मों के फलस्वरूप महावेदना होती है। परन्तु सम्यग्दृष्टि के सिवाय वे सब प्रायः उसे समभाव से, आत्म-शुद्धि, सकामनिर्जरा लक्षी दृष्टि और ज्ञानपूर्वक न भोगकर, न सहकर, विषमभाव से रो-रोकर विलाप करते हुए भोगते-सहते हैं। जिससे वह महावेदना महानिर्जरारूप नहीं होती; प्रत्युत अल्पतर, अप्रशस्त अकामनिर्जरा होकर रह जाती है। इसके विपरीत भगवान महावीर जैसे या धीर-वीर श्रमण निर्ग्रन्थ बड़े से बड़े उपसर्गों और परीषहों के समय समभाव से, शान्ति से सहन करने के कारण महानिर्जरा और वह भी प्रशस्तनिर्जरा कर लेते हैं। इसलिए वेदना महती हो अथवा अल्प उसे समभाव से शान्तभाव से ज्ञानपूर्वक सहने वाला प्रशस्त महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। यही कारण है कि नैरयिकों के पूर्वकृत पापकर्म गाढ़ीकृत (गाढ़ बँधे हुए), चिक्कणीकृत (मिट्टी के चिकने बर्तन के समान सूक्ष्म कर्म स्कन्धों के रस के साथ चिकने किये हुए दुर्भेद्य) तथा श्लिष्ट (आग में तपाई हुई सुइयों के ढेर की तरह परस्पर चिपककर एकमेक किये हुए) निधत्त एवं खिलीभूत (निकाचित किये) हुए हैं; इसलिए वे सम्प्रगाढ़ वेदना को वेदते हुए भी महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले नहीं होते; जबकि श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर (स्थूलतर स्कन्धरूप) कर्म शिथिलीकृत, (मन्दविपाक वाले), निष्ठिनकृत (सत्तारहित किये हुए) तथा विपरिणामित (विपरिणाम वाले) होते हैं। अतः शिथिलबन्ध वाले उन कर्मों को वे शीघ्र ही स्थितिघात और रसघात आदि के द्वारा विपरिणाम वाले कर देते हैं। अतएव वे शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में दो दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है-(१) सूखे घास का पूला
आग में डालते ही, तथा (२) तपे हुए तवे पर पानी की बूंद डालते ही, दोनों शीघ्र विनष्ट हो जाते हैं, वैसे ही श्रमण निर्ग्रन्थों के कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि जितनी और जैसी भी वेदना हो, श्रमण निर्ग्रन्थ उसे शमभाव-समभाव से वेदते हुए महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले हो जाते हैं। नैरयिक महावेदना होने पर महानिर्जरा वाला नहीं हो पाता, इसका कारण एक दृष्टान्त द्वारा बताया गया है-ऐरण पर जोर-जोर से चोट मारने पर भी उसके स्थूल पुद्गलों को वह नष्ट नहीं कर पाता; वैसे ही क्लिष्ट कर्म वाले नैरयिक घोर वेदना सहते हुए भी प्रशस्त महानिर्जरा नहीं कर पाते।
जो महावेदना वाला होता है, वह महानिर्जरा वाला होता है, यह सूत्रोक्त कथन प्रायिक समझना चाहिए। सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में महानिर्जरा होती है, किन्तु महावेदना नहीं भी होती। उसकी वहाँ भजना है।'
१. (प्र.) से नूणं भंते ! जे महावेदणे से महानिज्जरे? जे महानिज्जरे से महावेयणे?
महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए, जे पसत्थ निज्जराए? . (उ.) हंता गोयमा ! जे महावेदणे एवं चेव।
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