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* २०४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
निर्जरा : आत्मा से कर्म-परमाणुओं का विलग हो जाना है
आत्मा और कर्म-परमाणु दोनों पृथक्-पृथक् हैं। आत्मा (जीव) का राग-द्वेष-कषायादि विभावों के कारण कर्म-प्रायोग्य परमाणु के साथ संयोग होता है। जहाँ संयोग होता है, वहाँ उसका वियोग भी होता है। चे कर्म-प्रायोग्य परमाणु आत्मा से श्लिष्ट होकर उस पर प्रभाव डालने के पश्चात् अकर्म बन जाते हैं। अकर्म (उस-उस कर्म से रहित) बनते ही वे आत्मा से वियुक्त (विलग) हो जाते हैं। इसी वियुक्त दशा का नाम निर्जरा है।' महावेदना वाले सभी महानिर्जरा वाले नहीं होते __ वेदना और निर्जरा के सम्बन्ध में ‘भगवतीसूत्र' में एक प्रश्न उठाया गया हैजो जीव महावेदना वाले हैं, क्या वे महानिर्जरा वाले हैं तथा जो महानिर्जरा वाले हैं, क्या वे महावेदना वाले हैं तथा क्या महावेदना वाला और अल्पवेदना वाला, इन दोनों में जो जीव श्रेयान् (श्रेष्ठ) है, वही प्रशस्त निर्जरा वाला है ? इसका उत्तर भगवान ने अनेकान्त दृष्टि से दिया है-ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो. महावेदना (उपसर्ग आदि के कारण उत्पन्न हुई विशेष पीड़ा) होने से महानिर्जरा (कर्मों का विशेष रूप से, प्रशस्त रूप से क्षय होना) होती है। भगवान ने कीचड़ से रँगे हुए और खंजन से रँगे हुए वस्त्रद्वय के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि जो महावेदना वाले होते हैं, वे सभी महानिर्जरा वाले नहीं होते। श्रमण महावेदना या अल्पवेदना होने पर भी महानिर्जरा वाले क्यों ?
यहाँ मूल पाठ में जो प्रश्न उठाया गया है कि नैरयिक महावेदना वाले होते हुए भी महानिर्जरा वाले क्यों नहीं होते और श्रमण निर्ग्रन्थ महावेदना हो या अल्पवेदना फिर भी महानिर्जरा वाले क्यों होते हैं ? इसके समाधान में भगवान ने कीचड़ से रँगे तथा खंजन से रँगे वस्त्रद्वय के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि जो महावेदना वाले होते हैं, वे सभी महानिर्जरा वाले नहीं होते। जैसे-नारक महावेदना वाले होते हैं, उन्हें अपने पूर्वकृत गाढ़बन्धनबद्ध, निधत्त-निकाचित रूप
पिछले पृष्ठ का शेष(ख) गोयमा ! जं समयं वेदेति, नो तं समयं निज्जरेंति। अन्नंमि समए वेदेति, अन्नंमि समए निज्जरेंति; अन्ने से वेदणासमए, अन्ने से निज्जरासमए।
-भगवतीसूत्र, श. ७, उ. ३, सू. १०-२२ (ग) 'भगवतीसूत्र' (अनुवाद-विवेचनयुक्त) (श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर), श. ७,
__उ. ३ की व्याख्या से, पृ. १४५ १. 'जैनदर्शन : मनन और मीमांसा' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ३२५
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