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________________ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप २०३ वेदना और निर्जरा एक नहीं है इस पर से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि कर्मनिर्जरा वेदन = अनुभाव फलभोग करने के बाद ही होती है, पहले नहीं । 'भगवतीसूत्र' में एक प्रश्न उठाया गया है-भगवन् ! जो वेदना है, क्या वह निर्जरा है अथवा जो निर्जरा है, वह वेदना है ? इसके उत्तर में भगवान ने कहा- जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं है, इसी प्रकार जो निर्जरा है, वह भी वेदना नहीं है। क्योंकि नैरयिक आदि चौबीस दण्डकवर्ती जीदों की जो वेदना है, वह कर्म है और जो निर्जरा है, वह नोकर्म है । जीव के द्वारा वेदन किया जाता है, किया गया है और किया जायेगा - कर्मों का और निर्जीण किया गया है, किया जाता है और किया जायेगा - नोकर्मों का। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा- जो वेदना का समय है वह निर्जरा का समय नहीं है । जिस समय में वेदन करते हैं, उस समय निर्जरा नहीं करते, जिस समय निर्जरा करते हैं, उस समय वेदन नहीं करते। वेदन का समय दूसरा है, निर्जरा का समय दूसरा है। निष्कर्ष यह है कि पहले (उदयप्राप्त) कर्मों की वेदना = अनुभूति होती है, निर्जरा नहीं होती। वेदना = अनुभूति ( फल भोगने) के पश्चात् जब उन कर्मपरमाणुओं का कर्मत्व नष्ट हो जाता है, तब निर्जरा होती है। अतः निर्जरा उक्त कर्म का अभाव होने पर होती है, इसलिए कहा गया है - वेदना कर्म है, निर्जरा नोकर्म | वस्तुतः उदयप्राप्त कर्म का वेदन करना भोगना 'वेदना' कहलाती है और जो कर्म भोगकर क्षय कर दिया गया है, उसे निर्जरा कहते हैं । वेदना कर्म की, पूर्वबद्ध कर्म की होती है, कर्म बँधने के समय से लेकर वेदन के अन्तिम समय तक उसकी 'कर्म' संज्ञा रहती है। इसी कारण वेदना को ( उदयप्राप्त) कर्म कहा गया है और निर्जरा को 'नोकर्म' (कर्माभाव)। निर्जरा • हो जाने पर वे पुद्गल कर्म नहीं रहते, अकर्म हो जाते हैं । ' = • पिछले पृष्ठ का शेष (ख) 'तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, अ. ८' (उपाध्याय केवल मुनि जी ) से भाव ग्रहण (ग) सव्वेसिं कम्माणं सत्ति-विवाओ हवेइ अणुभाओ । तदणंतरं च सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण ॥ Jain Education International - कार्तिकेयानुप्रेक्षा १०३ ( उ ) णो इणट्टे समट्ठे । गोयमा ! १. ( क ) ( प्र . ) से नूणं भंते ! जा वेदणा सा निज्जरा, जा निज्जरा सा वेयणा ? गोयमा ! कम्मं वेयणा, णो कम्मं णिज्जरा। कम्मं वेदेंसु, नो कम्मं निज्जरिंसु; कम्मं वेदेंति, नो कम्मं निज्जरेंति; कम्मं वेदसंति, नो कम्मं निज्जरिस्संति । = For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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