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* २०२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
फलप्रदायक नहीं रहते। अतएव यथाकाल या तपोविशेष से कर्मों की फलदान-शक्ति का अनुभव करके (फलभोग कर) उन्हें झाड़ देना निर्जरा है।' निर्जरा की प्रक्रिया
'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार-निर्जरा का क्रम इस प्रकार है-विपाक का अर्थ है-कर्मों की फलदान-शक्ति अर्थात् विविध प्रकार से कर्म के पाक = परिपक्व होने-पकने, फल देने योग्य-उपभोग योग्य हो जाना। इस प्रकार कर्म के उदय में आने पर उसके फल का अनुभव-वेदन होना अनुभाव है। आशय यह है, निर्जरा से पहले सर्वप्रथम जीव द्वारा पहले बाँधे हुए विविध कर्मों के उदय में आने पर उनका फल वह अनेक प्रकार से सुखरूप या दुःखरूप अनुभव करता है = भोगता है, कर्मविज्ञान की भाषा में इसे अनुभाव या अनुभाग कहते हैं; अर्थात् अनुभव कराने की शक्ति। 'कार्तिकयानुप्रेक्षा' में भी कहा है-“सब कर्मों की शक्ति के उदय होने, फल देने, विपाक होने को अनुभाव कहते हैं, उसके पश्चात् अर्थात फलभोग कराने के पश्चात् कर्मों की निर्जरा हो जाती है, वे कर्म आत्मा से पृथक हो जाते हैं, झड़ जाते हैं। अनुभाव कर्म के स्वभावानुसार होता है
इस निर्जरा प्रक्रिया में एक बात और समझ लेनी है-जो अनुभाव होता है, वह कर्मों के नाम अथवा स्वभाव के अनुसार होता है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव में बुद्धिहीनता आती है, उसकी स्मृति अत्यन्त मन्द हो जाती है या चली जाती है, वह विविध विषयों को नहीं जान पाता। इसी प्रकार साता-असाता-वेदनीय कर्म के उदय से. जीव को सुख-दुःख की अनुभूति होती है। अन्तराय कर्म के उदय से लाभ आदि में विघ्न पड़ता है। शेष सभी कर्मों का फल = अनुभव = वेदन भी उनके नाम और स्वभाव के अनुसार समझ लेना चाहिए।२ ।
१. (क) पीडानुग्रहावात्मने प्रदाय, अभ्यवहृतौदनादि-विकारवत् पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावात् कर्मणो निवृत्तिर्निजरा।
__ -सर्वार्थसिद्धि ८/२३/३९९/६ (ख) निर्जीयते निरस्यते यथा निरसनमात्रं वा निर्जरा। निर्जरेव निर्जरा। कः उपमार्थः? यथा __ मंत्रौषधबलान्निर्जीर्णवीर्य विपाकं विषं न दोषप्रदम्, तथा तपोविशेषेण निर्जीर्णरसं कर्म न संसारफलप्रदम्। - - - यथा विपाकात्तपसो वा उपभुक्तवीर्य कर्मनिर्जरा।
-राजवार्तिक ४/१२/२७, ४/१९/२७, ७/१४/४0/१७ (ग) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ७६ २. (क) विपाकोऽनुभावः स यथानाम, ततश्च निर्जरा। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ८, सू. २२-२४
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