SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप * २०१ ॐ •कोई व्यक्ति मन, इन्द्रियों और बुद्धि का दरवाजा बाहर से बन्द कर ले, परन्तु उसके मन-मस्तिष्क में अनादिकाल से संसार में विभिन्न गतियों-योनियों में परिभ्रमण करते हुए जो करोड़ों-अरबों शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श अथवा राग-द्वेष या कषाय के भाव कर्मबन्ध के रूप में संचित हैं, उनकी सफाई करके उन्हें बाहर न निकाला जाए, उन विषय-कषायों से जनित कर्मों के भंडार को खाली न किया जाए तो अंदर ही अंदर सड़कर वे उस आत्मा को कर्मों से भारी कर देंगे अथवा हिंसा, असत्य, चोरी, बेईमानी, हत्या, लूटपाट आदि बुराइयों की दुर्भावनाएँ, मोह, मद, काम, क्रोधादि की वृत्तियाँ अवचेतन मन में संचित होती रहें, उन्हें रिक्त न किया जाए तो वे अनेक दुष्कर्मों का अनर्थ पैदा कर सकती हैं। इसीलिए निर्जरा का एक अर्थ है-भीतर जो संचित है, उसको बाहर निकालना, रिक्त करना।' निर्जरा न हो तो विषय-कषायों से जनित पूर्वबद्ध-संचित कर्मों का भंडार खाली ही नहीं होगा। इसलिए प्रत्येक जीव को निर्जरा की आवश्यकता है, उसके बिना चेतना का विकास, ऊर्ध्वारोहण, गति-योनि-इन्द्रिय आदि का विकास नहीं हो सकता। ____ कर्मनिर्जरा क्यों और कैसे-कैसे होती है ? ‘सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-“जिस प्रकार भात आदि का आहार करने पर पचने के बाद वह मल के रूप में निकल जाता है, शरीर से पृथक् हो जाता है, उसी प्रकार (रागादिवश) कर्म आत्मा में प्रविष्ट होकर बँध जाता है और यथासमय (अबाधाकाल पूरा होने पर, उदय में आकर) उस आत्मा को भला-बुरा अनुभव कराने के बाद पूर्व प्राप्त स्थिति समाप्त हो जाने पर वह कर्म निवृत्त होकर निर्जीर्ण हो जाता (निकल जाता = पृथक् हो जाता) है। ... 'राजवार्तिक' में कहा गया है-कर्म के झड़ने-नष्ट = क्षय होने का नाम निर्जरा है। वह बाह्य वस्तु की निर्जरा की भाँति निर्जरा है। जिस प्रकार किसी पक्षी की पाँखें धूल से भर जाती हैं, तब वह फड़फड़ाकर अपनी पाँखों को प्रकम्पित करता है, जिससे सारा रजकण झड़ जाता है, उसी प्रकार कर्मरज से भी जीव (आत्मा) भर जाने पर समय-समय पर तप से, कष्ट-सहन से प्रकम्पित करके उतने कर्मरज कणों को झाड़ देता है। यह बाह्य निर्जरा की भाँति निर्जरा की प्रक्रिया है। जिस प्रकार मंत्र या औषध आदि से शक्तिहीन किया हुआ विष दोष उत्पन्न नहीं करता, उसी प्रकार उदय में आए हुए वे कर्म स्वेच्छा से या अनिच्छा से तप, त्याग, कष्ट-सहन, परीषह, उपसर्ग आदि पर विजय आदि से भोगकर नीरस और निःशक्त किये जाने पर संसारचक्र को कम कर देते हैं या संसाररूप १. 'अमूर्त चिन्तन' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. ७५-७६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy