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२०० कर्मविज्ञान : भाग ७
निर्जरा का सामान्य लक्षण
यद्यपि संवर से नये कर्मों का आगमन रुक जाता है, तथापि पुराने ( पहले के ) बँधे हुए कर्म तो आत्मा में संचित रूप से पड़े रहते हैं। वे तब तक पड़े रहते हैं, जब तक उनका अबाधाकाल पूर्ण नहीं होता, अर्थात् वे जब तक उदय में नहीं आते। सभी कर्म एक साथ उदय में नहीं आते। उन संचित कर्मों में से जो-जो कर्म उदय में आते जाते हैं, उन्हें क्रम-क्रम से भोगने से, वे कर्म क्रमशः आत्म- प्रदेश से दूर होते जाते हैं । कर्मों के इस तरह क्रम-क्रम से दूर होने - आत्मा से पृथक् होने, नष्ट होने या क्षय होने को निर्जरा कहते हैं । कर्मों की निर्जरा भी क्रमपूर्वक ही होती है, अक्रम से नहीं । '
निर्जरा का लक्षण : समस्त जीवों की दृष्टि से
निर्जरा का लक्षण ‘स्थानांगसूत्र' की वृत्ति में इस प्रकार किया गया है - कर्मों का जीव (आत्मा) के प्रदेशों से झड़ना = खिरना निर्जरा है । अथवा पूर्णरूप से प्रति समय विशिष्ट कर्म के विपाक (फलभोग) से उसकी हानि (क्षय) से उक्त कर्म का पृथक् हो जाना, झड़ जाना निर्जरा है |
मुमुक्षुओं के लिए निर्जरा क्यों आवश्यक है ?
शरीर में जब तक विजातीय द्रव्य संचित रहते हैं, तब तक शरीर स्वस्थ नहीं रहता, उसका विकास नहीं हो पाता; उसी प्रकार आत्मा में जब तक विजातीय कर्मपुद्गल अधिक मात्रा में संचित हो जाते हैं, वे निकलें नहीं, तब तक वह आत्मा स्वस्थ होकर आगे विकास नहीं कर पाती । एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि रूप में चेतना के विकास में निर्जरा ही प्रमुख कारण है। प्रत्येक जीव के अपनी-अपनी भूमिकानुसार संचित या पूर्वबद्ध कर्मों के उदय में आने पर उस-उस जीव द्वारा उनके भोगे जाने से वे क्षीण हो जाते हैं, अर्थात् वे उदय प्राप्त कर्म भोगने से आत्मा से पृथक् हो जाते हैं । मोक्ष -साधक भी पूर्वबद्ध कर्मों को या तो उदय में आने से पूर्व ही सम्यग्ज्ञानपूर्वक बाह्य - अन्तरंग तप, परीषह - उपसर्ग-सहन, कष्ट-सहन, कषाय-विजय आदि से कर्मों की निर्जरा कर लेता है अथवा उस-उस कर्म के उदय में आने पर भी समभावपूर्वक उक्त कर्म को भोगकर निर्जरा करता है। यदि कर्मों की निर्जरा न हो, आत्म-शुद्धि न हो तो साधक भी आत्म-गुणविकास नहीं कर सकता ।
१. (क) देखें - जैनन्द्रसिद्धान्तकोश, भा. २ में निर्जरा शब्द, पृ. ६२२ (ख) जैनधर्मामृत, अ. १२ में निर्जरा शब्द का प्राथमिक, पृ. २५३ २. (क) कर्मणां जीव- प्रदेशेभ्यः परिशाटने ।
(ख) कार्त्सन्येनानुसमयं विशेष-कर्मविपाकहान्या परिशाटने।
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- स्थानांगसूत्र, स्था. १०
- वही, स्था. ४, उ. ४
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