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निर्जरा: अनेक रूप और स्वरूप
कर्मों का बंध होने वाला तत्त्व बंध और छूटने वाला तत्त्व निर्जरा है संसार में अनन्त-अनन्त प्राणी अपनी प्रवृत्तियों के कारण कर्मों से बार-बार लिपटते हैं और उनके उदय में आने पर उनको बरबस या समभाव से भोगकर उन्हें अलग भी करते जाते हैं। अगर प्राणी कर्मों का बन्ध ही बन्ध करते जाएँ, उनसे छुटकारा कभी मिले ही नहीं, तब तो कोई भी प्राणी अपनी इन्द्रियों, चेतना, मन आदि का विकास कर ही नहीं सकता। परन्तु कर्मविज्ञान ने यह सिद्ध करके बता दिया है कि प्रत्येक सांसारिक प्राणी प्रति क्षण सात या आठ कर्म बाँधता भी है और भोगकर उनसे छूटता भी है। एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय बनने तक के पीछे यही सिद्धान्त काम करता है। परन्तु कर्मविज्ञान में बाँधने
और छूटने के तत्त्व को अलग-अलग संज्ञा (नाम) दी गई है। कर्मों का बन्ध होने वाले तत्त्व का नाम 'बन्ध' है और कर्मों से छूटने वाले तत्त्व का नाम 'निर्जरा' है।
कर्मनिजरा : लक्षण, स्वरूप और प्रयोजन 'भगवती आराधना' के अनुसार-निर्जरा का अर्थ है-पूर्वकृत कर्मों का झड़ना। जैसे पक्षी पंख फड़फड़ाकर उस पर लगी हुई धूल को झाड़ देता है, उसी प्रकार जीव आत्मा पर लगी हुई पूर्वकृत कर्मरज को झाड़ देता है, उसे निर्जरा कहा जाता है। 'बारस अणुवेक्खा' के अनुसार-आत्म-प्रदेशों के साथ लगे कर्मप्रदेशों का, उन आत्म-प्रदेशों से झड़ जाना-पृथक् हो जाना निर्जरा है। मोक्ष में समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, वैसे निर्जरा में एक ही साथ, एक ही समय में समस्त कर्मों का क्षय नहीं होता, किन्तु पूर्वबद्ध कर्मों में से जो कर्म उदय में आ जाते हैं, सुख-दुःखरूप फल देने के अभिमुख हो जाते हैं, उन्हीं कर्मों का फल जीव भोगता है, भोगने के बाद फल देकर वे कर्म झड़ जाते हैं। इसलिए 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-एक देश से (आंशिक रूप से) कर्मों का (आत्म-प्रदेश से) जुदा होना निर्जरा है।'
१. (क) पुव्वकद-कम्म-सडणं तु णिज्जरा। . (ख) बंध-पदेशग्गलणं णिज्जरणं। (ग) एक-देश-कर्म-संक्षय-लक्षणा निर्जरा।
-भ. आ. मू. १८४७
. -बा. अ.६६ -सर्वार्थसिद्धि ८/२३/३९९/६
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