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________________ * २०६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ महावेदना और महानिर्जरा से सम्बन्धित चौभंगी ___ इसी सूत्र में आगे इसी से सम्बन्धित प्रश्न उठाया गया है-"भगवन् ! क्या (संसारी) जीव महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं अथवा अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं?' इसका समाधान दिया गया है"गौतम ! कितने ही जीव महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं, कितने ही महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं, कई जीव अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं तथा कई जीव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं।'' ___ इस चतुर्भगी का स्थूलरूप से कारण बताया गया है-“प्रतिमा-प्रतिपन्न (भिक्षुपडिमा अंगीकार किया हुआ) अनगार महावेदना और महानिर्जरा वाला होता है। छठी-सातवीं नरकभूमियों के नैरयिक जीव महावेदना वाले, किन्तु अल्पनिर्जरा वाले होते हैं। शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं तथा अनुत्तरौपपातिक देव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं।' निष्कर्ष यह है कि वेदना की अधिकता या अल्पता निर्जरा के तारतम्य का कारण नहीं है। निर्जरा का मुख्य कारण है कष्ट को सहने की पद्धति और दृष्टि। पिछले पृष्ठ का शेष (प्र.) ते णं भंते ! समणेहितो निग्गंथेहितो महानिज्जरतरा? (उ.) गोयमा ! णो इणढे समढे। गोयमा ! से जहानामए दुवे वत्थे सिया कयरे वत्थे दुधोयतराए चेव दुवामतराए चेव दुपरिकम्मतराए चेव, कयरे वा वत्थे सुधोयतराए इत्यादि। एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकताई चिक्कणीकताई सिलिट्ठीकताई भवंति, संपगाढं पि य णं ते वेदणं वेदेमाणं नो महानिज्जरा, णो महापज्जवसाणा भवंति। समणाणं खिलीभूताई, अहाबायराइं कम्माइं सिढिलीकयाइं निहिताई कडाई, विप्परिणामिताई खिप्पामेव विद्धत्थाई भवंति एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं जाव महापज्जवसाणा भवंति । -भगवतीसूत्र, श. ६, उ. १, सू. २-४ १. (प्र.) जीवा णं भंते ! किं महावेदणा महाणिज्जरा? महावेदणा अप्पनिज्जरा? अप्पवेदणा महानिज्जरा? अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा? (उ.) गोयमा ! अत्थेगइया जीवा महावेदणा महानिज्जरा, अत्थेगइया जीवा महावेदणा अप्पनिज्जरा, अत्थेगइया जीवा अप्पवेदणा महानिज्जरा, अत्थेगइया जीवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा। पडिमा-पडिवन्नए अणगारे महावेदणे महानिज्जरे। छट्ठ-सत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदणा अप्पनिज्जरा॥ सेलेसिं पडिवन्नए अणगारे अप्पवेदणे महानिज्जरे। अणुत्तरोववाइया देवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा! -वही, श. ६, उ. १, सू. १३/१-२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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