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® २ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
प्रमाद मृत्यु है, अप्रमाद अमृत्यु (जीवन) : क्यों और कैसे?
'धम्मपद' में कहा गया है-“पमादो मच्चु, अपमादो अमच्चु।"-प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत्यु (जीवन) है। इन दोनों व्यक्तियों का प्रमाद ही सैकड़ों व्यक्तियों की मृत्यु का कारण बना।
इसी प्रकार यदि मनुष्य भी और उसमें भी अप्रमाद-संवर द्वारा कर्ममुक्ति की साधना करने वाला सागार या अनगार साधक भी अपनी जीवनरूपी गाड़ी को प्रमादपूर्वक चलाता है, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, अंहकार, राग-द्वेष, विषय-वासना और स्वार्थान्धता के नशे में धुत होकर जीवनरूपी गाड़ी को अंधाधुंध दौड़ाता है, सावधानी और विवेक विचार या यत्नाचार बिलकुल नहीं रखता; दूसरों की यानी अपने से भिन्न षड्जीवनिकाय के जीवों की जिंदगी का जरा भी विचार नहीं करता, न ही अपनी जिंदगी नष्ट-भ्रष्ट होने की चिन्ता करता है, तो कर्मविज्ञान के पुरस्कर्ता भगवान महावीर कहते हैं-"जो (इस प्रकार) प्रमत्त एवं विषयासक्त है, वही जीवों को दण्ड देने वाला (जीवहिंसक) होता है।"१
अर्थात् प्रमादी जीव के काम-क्रोधादि के या पंचेन्द्रिय-विषय-वासना के नशे में स्वयं के द्रव्यप्राणों का कदाचित् नाश न होता हो, परन्तु भावप्राणों को तो वह नष्ट कर ही देता है। इसके अतिरिक्त अन्य एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में से भी अनेक को अपनी असावधानी, अविवेक और प्रमाद के कारण मौत के घाट उतार सकता है। भगवान ने तो स्पष्ट कहा है-"जो इस जीवन के प्रति (विषयकषायादिवश) प्रमत्त-आसक्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव (जीववध) और उत्तास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है।"२ कर्मविज्ञान की दृष्टि से प्रमादास्रव के कारण अप्रमत्त साधना में तत्पर साधक की एक क्षण की गफलत से तीव्र पापकर्म का बन्ध सम्भव है। साथ ही पूर्वबद्ध पापकर्म के उदय में आने पर स्वयं भी अकाममरण से युक्त मृत्यु का शिकार हो सकता है और अपनी जिंदगी के साथ-साथ अनेकों प्राणियों तथा मानवों की अमूल्य जिंदगी को भी मौत के घाट उतार दे सकता है अथवा पूर्वोक्त प्रमाद के नशे में स्व-पर को भी वैर-विरोध, संघर्ष, पीड़ा, यातना एवं वेदना से ग्रस्त कर सकता है। मानव के उस एक क्षण के प्रमाद के कारण इतना बड़ा हादसा घटित हो सकता है। इसीलिए तथागत बुद्ध ने कहा-"प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद जीवन है।"
१. जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडेत्ति पवुच्चति। -आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. १, उ. ४ २. जीविते इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुपिता विलुपिता उद्दवेत्ता उत्तासथित्ता॥
-वही, श्रु. १, अ. २, उ. १
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