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________________ ॐ योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण * १९३ ॐ (१३) यश, और (१४) बलिष्ठता। ये सब पुण्याचरण के सुखद फल हैं, जो पापाचरण करने वालों को हर्गिज नहीं मिल पाते। पुण्याचरण के नौ माध्यम, उनका स्वरूप और आचरण का निदर्शन पुण्य उपार्जन करने के मुख्यतया नौ माध्यम स्थानांग में बताये हैं, उनका संक्षेप में स्वरूप और पुण्यशालियों द्वारा किये जाने वाले आचरण का दिग्दर्शन इस प्रकार है (१) अन्नपुण्य-सामान्यतया किसी भूखे या अभाव-पीड़ित जीव को बिना किसी स्वार्थभाव के भोजन कराना, धर्म-धुरन्धर भिक्षाजीवी श्रमण, माहन को सात्त्विक आहार देना अथवा किसी अभावग्रस्त के तथा उसके परिवार के पेट भरने की समस्या हल करना, उसके लिए किसी सात्त्विक आजीविका या रोटी-रोजी का प्रबन्ध कर देना अन्नपुण्य है। विशेष रूप से जब किसी नगर, ग्राम या प्रान्त (प्रदेश) में दुष्काल, सूखा, भूकम्प, बाढ़ आदि के प्रकोप से मानव तथा पशु आदि भूख के मारे मर रहे हों, उस समय निःस्वार्थभाव से उनको अन्नादि सहायता देना अन्नपुण्य है। __ जैन इतिहास में झगडूशाह, खेमाशाह आदि कई जैन-वणिकों का नाम अमर है, जिन्होंने गुजरात में दुष्काल के समय सारे गुजरात को निःस्वार्थभाव से अन्न दिया था। किशनगढ़ के तत्कालीन राजा मदनसिंह जी ने अपने राज्य में दुष्काल के कारण प्रजा को जिन्दा रखने हेतु अपने राज्य भण्डार में जितना अन्न था, वह सब उन्हें बाँट दिया। फिर भी दुष्काल मिटा नहीं। अतः चिन्तित होकर वर्षभर से अन्न की जरूरत को पूरा करने हेतु उन्होंने चारों ओर खोज की। उन्हें मालूम पड़ा कि आगरा से सेठ बलवंतराज जी मेहता के ५00 मन अनाज आने वाला है। अतः राजा जी ने बलवंतराज जी को बुलाकर उन्हें अनाज के मुँहमाँगे दाम लेकर दे देने को कहा। बलवंतराज जी ने कहा-“राजन् ! मैं दयाधर्मी जैन हूँ। मैं राज्य की भूखी जनता को -उत्तराध्ययन, अ. ७, गा. २६-२७ १. (क) इह काम-नियट्टस्स, अत्तढे नावरज्झई। पूइ-देह-निरोहेणं, भवे देवित्ति मे सुयं ॥२६॥ इड्ढी जुई जसो वण्णो आउं सुहमणुत्तरं। भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उववज्जई॥२७॥ (ख) खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पसवो दास-पोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि तत्थ से उववज्जई।।१७॥ मित्तवं नायवं होइ, उच्चगोए य वण्णवं। अप्पायके महापन्ने अभिजाए जसो बले ॥१८॥ उति माणुसं जोणिं, तत्थ से उववज्जइ॥१६॥ -वही, अ. ३, गा. १७-१८, १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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