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________________ * १९२ कर्मविज्ञान : भाग ७ है अथवा वचन से दूसरों की निन्दा - चुगली करने, फूट डालने, धोखा देने, ठगने, छल-प्रपंच करने, झूठी सलाह देने या हिंसादि का उपदेश - आदेश देने में जो आनन्द है, उसकी अपेक्षा वचन से सत्य, हित, परिमित, मधुर बोलने, धर्ममार्ग की ओर प्रेरित करने, कलह मिटाने, सत्परामर्श देने में जो आनन्द है, ' काया से दूसरों को मारने, सताने, हैरान करने, हत्या, दंगा, मारपीट, चोरी, लूटपाट, आगजनी, बलात्कार आदि पापकर्म करने में जो आनन्द है, उसकी अपेक्षा काया से दूसरों को सहारा देने, रक्षा करने, श्रमदान करने, सेवा करने, अभाव - पीड़ितों को दान या सहयोग देने आदि में जो आनन्द है, इसी प्रकार नास्तिक बनकर अहंकारवश किसी भी वीतरागी परमात्मा मुक्त प्रभु को, सद्गुरु को, सद्धर्म को न मानने और उनकी विनय-भक्ति न करने तथा उद्दण्ड, अत्याचारी, भ्रष्ट अधिकारी या जबर्दस्त के आगे सिर झुकाने में जो आनन्द है, उसकी अपेक्षा वीतराग देवाधिदेव, निर्ग्रन्थ सद्गुरु एवं सद्धर्म के प्रति विनय-भक्ति, वन्दन, नमन करने, अपने से धर्माचरण में आगे बढ़े हुए महान् आत्मा के प्रति विनय करने में जो आनन्द है, उस पर विचार करने से स्पष्टतः प्रतीत होगा पहला मार्ग पापकारी है, अशान्ति एवं असन्तोष पैदा करने वाला है, जबकि दूसरा पुण्यमार्ग है, जो जीवन में सुख-शान्ति, संतोष और सुव्यवस्था लाने वाला है । पुण्याचरण से उभयलोक में मिलने वाली भौतिक उपलब्धियाँ पुण्य से इहलोक में भी परिवार, समाज और राष्ट्र तथा विश्व में सुख-शान्ति, सन्तुष्टि और सुव्यवस्था रहती है, परलोक में भी । 'उत्तराध्ययनसूत्र' इस तथ्य का साक्षी है कि जो व्यक्ति इस लोक में विविध कामभोगों ( कामनाओं-वासनाओं, लालसाओं, इच्छाओं आदि) पर नियंत्रण रखता है, वह आत्मा के प्रति अपराध नहीं करता, अर्थात् अपनी आत्मा को अपराधों - दोषों से ग्रस्त नहीं करता, वह पवित्र देह का त्याग करके देव होता है, ऐसा मैंने सुना है, फिर वहाँ जब पुनः मनुष्यलोक में ऐसे स्थान में जन्म लेता है, जहाँ उसे ऋद्धि, द्युति (तेजस्विता ), यशकीर्ति, वर्ण (प्रसिद्धि या प्रशंसा), सुदीर्घ आयु और अनुत्तर (उत्कृष्ट) सुख मिलता है। इसी प्रकार पूर्वकृत पुण्य के प्रभाव से देवयोनि से आयुष्य पूर्ण करके वह मनुष्य योनि में ऐसी जगह जन्म लेता है, जहाँ उसे चार काय स्कन्धों के अतिरिक्त अन्य दस सुखद अंग मिलते हैं - ( १ ) क्षेत्र (भूमि), (२) वास्तु (मकान), (३) हिरण्य ( सोना, चाँदी आदि), (४) पालतू पशु, (५) दास-सेवक (नौकर-चाकर), (६) अच्छे मित्र, (७) अच्छी ज्ञाति, (८) उच्च गोत्र, (९) उच्च वर्ण, (१०) अल्प रोग- आतंक, (११) महाप्रज्ञा, (१२) आभिजात्य ( कुलीनता), १. 'दिव्यदर्शन' (गुजराती पाक्षिक), दि १४-४-९० के अंक से भावांश ग्रहण, पृ, २०७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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