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________________ * योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण १९१ आत्म-गुणों का प्रकटीकरण तो बहुत दूर की बात है । ऐसे व्यक्तियों के लिए एक आचार्य की उक्ति घटित होती है “ पुण्यस्य फलमिच्छन्ति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ " -लोग पुण्य का सुखद फल पाना चाहते हैं, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से पुण्य का जीवन में आचरण नहीं करना चाहते। वे अपने पापों का फल जरा भी पाना नहीं चाहते, किन्तु आश्चर्य है कि बेधड़क होकर अहर्निश हिंसा, झूठ, चोरी, ठगी, बेईमानी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, अन्याय, अनीति, क्रूरता, निर्दयता आदि पापों का आचरण करते हैं। सुख-शान्ति के लिए पुण्याचरण करना वर्तमान युग में भी अनिवार्य है इसलिए आज के समस्त लोगों को परिवार, समाज, धर्म-सम्प्रदाय, राजनीति, व्यवसाय, राष्ट्र आदि के जीवन के सभी क्षेत्रों में सुख-शान्ति, अमनचैन, सुरक्षा, तथा विभिन्न प्रकार के संकटों और विपत्तियों के निवारणार्थ पुण्य का आचरण करना अनिवार्य है। पुण्य के द्वारा ही धर्म की नींव सुदृढ़ हो सकती है। Jain Education International पापकर्मों के आचरण से आनन्द की अपेक्षा पुण्यकर्मों के आचरण में अधिक आनन्द है स्थूलदृष्टि से भी देखें तो पुण्य और पाप दोनों में पुण्य का पलड़ा भारी रहेगा। केवल अपना ही पेट भरने से मिलने वाले आनन्द की अपेक्षा अन्य भूखों का पेट भरने से जो आनन्द मिलता है; दूसरों से छीन -झपटकर या आवश्यकता से अधिक वस्तुओं के संग्रह से मिलने वाले आनन्द की अपेक्षा जरूरमंद को देने में जो आनन्द है, अपने लिए अधिकाधिक मकानों का उपभोग करने से मिलने वाले आनन्द की अपेक्षा किसी आश्रयहीन बेघर को आश्रय देने या विद्यालय, पुस्तकालय, धर्मालय • आदि के लिए मकान देने में जो आनन्द है तथा अपने पास आवश्यकता से अधिक वस्त्रों की पेटियाँ भरकर रखने में जो आनन्द है, उसकी अपेक्षा वस्त्रहीन, फटेहाल या सर्दी से ठिठुरते हुए मानवों को वस्त्र देने में जो आनन्द है अथवा मन से दूसरों की हत्या करने, झूठ बोलकर ठगने, माल हड़पने या दूसरों की वस्तु को अपने कब्जे में करने के रौद्र दुश्चिन्तन में या अपनी बुद्धि, शक्ति आदि की मन्दता के कारण हीनभावना करने रोते-झींकते रहने में जो आनन्द है, उसकी अपेक्षा दूसरों के प्रति मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं माध्यस्थ्यभावना करने या समस्त जीवों की सुख-शान्ति, निरामयता, कल्याणकारिता, विकास, उन्नति आदि की भावना करने में जो आनन्द For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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