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________________ * १९४ कर्मविज्ञान : भाग ७ देखकर इस अनाज को बेचूँगा नहीं, मैं इतना अनाज बेचकर पुण्य के अवसर को क्यों खोऊँ? मुझे आप इस सेवा का अवसर दें। मैं बहुत उपकृत होऊँगा । मैं सारा अनाज ५०० मन अभी और ५०० मन बाद में आगरा से आयेगा, वह भूखी जनता को देने के लिए तैयार हूँ ।" राजासाहब यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने खुश होकर जागीरी और पुरस्कार देना चाहा, परन्तु बलवंतराज जी ने साफ इन्कार कर दिया कि “सेवा को कतई बेचूँगा नहीं ।" यह था निःस्वार्थ अन्नपुण्य ! एक गाँव के समझदार व्यापारी ने गाँव में दुष्काल के कारण चोरी, लूटपाट और अशान्ति होने की सम्भावना से दूरदर्शी बनकर गाँव के सभी लोगों को एकत्रित करके अपने एक हज़ार मन अनाज में से अपने वर्षभर खाने के लिए ६० मन और ग्राम के किसानों के बोने के लिए बीज के रूप में २०० मन अन्न रखकर जो एक वर्ष तक चल सके बाकी का इतना सारा अनाज गाँव के लोगों को क्षुधापूर्ति के लिए देकर अन्नपुण्य उपार्जित किया । बम्बई के एक जैन व्यापारी प्रतिदिन बिना किसी भेदभाव से अपनी ओर से एक शाकाहारी होटल से ५० भूखे व्यक्तियों को भोजन कराते हैं। इस तरह विभिन्न रूप से अन्नपुण्य का लाभ कई लोग प्राप्त करते हैं । ' (२) पानपुण्य या प्राणपुण्य - १३ वर्ष की उम्र में विधवा हो जाने के बाद ससुराल वालों द्वारा तिरस्कार किये जाने से श्यामो अपने माँ-बाप के पास रहने लगी । परन्तु दुर्भाग्य से माँ-बाप की मृत्यु के बाद श्यामो ने एक संकल्प किया- - वह मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट भरेगी और बचत होगी, उस राशि को पुण्यकार्य में खर्च करेगी । श्यामो दो घण्टे रात रहते उठती, प्रतिदिन ५ सेर आटा पीस लेती, लोगों के यहाँ काम करती, चरखा कातती, गाय चराती, इस प्रकार श्रम से उसने अपनी जिन्दगी में ५०० रुपये बचाये। मुंगेर से भागलपुर जाने वाली सड़क पर उसने इस रकम से प्यासे राहगीरों को पानी पिलाने हेतु एक कुआँ, एक प्याऊ और ठण्डी छाया के लिए कुछ पेड़ लगाये । प्याऊ पर बैठकर वह खुद पानी पिलाती। कभी भूखों को भोजन भी खिला देती । १५० वर्ष हो गये उस बात को । आज भी वह कुआँ, प्याऊ आदि श्यामो अपूर्व त्याग और श्रम की तथा पानपुण्य की स्मृति बने हुए हैं । २ प्राणपुण्य- 'पाणपुण्णे' का संस्कृत रूपान्तर 'प्राणपुण्य' भी होता है। अहमदाबाद उस समय घोर विपत्ति में डूबा हुआ था । एक विदेशी सरदार हमीद खाँ ने शहर पर हमला कर दिया। अपनी सेना को शहर में लूटपाट, हत्या, १. (क) 'तीर्थंकर' (मासिक) के सितम्बर १९७६ में प्रकाशित नेमीचन्द पटोरिया के लेख से संक्षिप्त (ख) 'कल्याण' (मासिक) जुलाई १९७२ के अंक से भाव ग्रहण ( ग ) 'नवभारत टाइम्स' दि. २९-४-९२ के अंक से भाव ग्रहण २. 'महकते जीवन फूल' (अशोक मुनि) से संक्षिप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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