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________________ * योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण १८९ परिणाम के कारण नये पुण्य का बन्ध तो होगा ही, साथ ही उक्त पुण्यात्मक संस्कारों ( कर्मों) में चार बातें साथ ही साथ जुड़ती जायेंगी - ( 9 ) पुण्य और पाप दोनों की स्थिति का अपकर्षण, (२) पापकर्मों के अनुभाग (रस) का अपकर्षण, (३) पुण्यात्मक कर्मों के अनुभाग का उत्कर्षण, और (४) पापात्मक कर्मों का पुण्य के रूप में संक्रमण ।' इससे यह होगा कि अगले क्षणों में जो पुण्यात्मक कर्म उदय में आयेंगे, वे अपने पूर्ववर्ती पुण्यकर्म संस्कारों से उत्तरोत्तर अधिक शक्तिमान होंगे। यानी पूर्व समयवर्ती पुण्य के उदय से द्वितीय समयवर्ती पुण्य की शक्ति और भी अधिक बढ़ जायेगी। फलतः जीव के वे परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध से विशुद्धतर और विशुद्धतम होते चले जायेंगे। जिसके कारण पूर्व पृष्ठों में बताये अनुसार उत्कृष्ट पुण्य के साथ संवर और निर्जरा का लाभ भी प्राप्त होता जायेगा । इस दृष्टि से समझदार या सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति के लिए पुण्य का बन्धन भी हलका हो सकेगा । २ पुण्य की उपादेयता और सार्थकता किस भूमिका में और क्यों ? इस दृष्टि से पुण्य की उपादेयता और सार्थकता निचली भूमिका वालों के लिए स्पष्ट है और जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि हैं, फिर भी अन्याय, अनीति और हिंसादि पापकर्मों में रत हैं, उन्हें तो सर्वप्रथम पाप के मार्ग को छोड़कर पुण्य का मार्ग पकड़ना अत्यन्त हितकर है। किन्तु जो मिथ्यादृष्टि होते हुए भी शुभ योगी हैं, उनके लिए भी पुण्य- वृद्धि की उपादेयता स्पष्ट है। जो सम्यग्दृष्टि हैं, धार्मिक हैं, न्याय-नीति-सम्पन्न हैं अथवा व्रतधारी श्रावक हैं, उनके लिए भी पूर्वकृत पुण्य से प्राप्त शुभ साधन या वातावरण को पाकर पूर्वोक्त प्रकार से पुण्यात्मक वृत्ति - प्रवृत्ति के अवसर आने पर चूकना नहीं चाहिए। तभी वे संवर और निर्जरा के पथ पर दौड़ लगा सकेंगे। पापबन्ध में बन्ध से छूटने का अवकाश नहीं, पुण्यबन्ध में अवकाश है यह ठीक है कि बन्ध की अपेक्षा पाप और पुण्य दोनों बराबर हैं। परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। पाप सर्वथा बन्ध है, किन्तु पुण्यबन्ध होते हुए भी, इससे छूटने का इसमें अवकाश है। पाप से पाप और पुण्य दोनों की स्थिति का उत्कर्षण होता है. जिससे संसार बढ़ता रहता है, जबकि १. (क) उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि के नियमों और कार्यों के विषय में विशेष स्पष्टीकरण देखें- 'कर्मविज्ञान, भा. ५' में कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - १, २ शीर्षक निबन्ध (ख) 'कर्मरहस्य' (ब्र. जिनेन्द्रवर्णी) से भाव ग्रहण, पृ. १८२-१८६ २. वही, पृ. १८६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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