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________________ * १८८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ * में पूर्ण स्वतन्त्र और समर्थ होता है। किन्तु उक्त पूर्वबद्ध कर्म के उदय में आने पर उस कर्म के फल को बदलना उसके वश की बात नहीं। अर्थात् बद्धकर्म के उदय की सीमा में प्रवेश करने से पूर्व जीव (आत्मा) उक्त पापकर्म के फल को पुण्य. कर्मफल में परिवर्तित कर सकता है। उदय की सीमा में प्रवेश करने के पश्चात् उक्त कर्म के फल में किसी प्रकार का परिवर्तन होना सम्भव नहीं। घोर मिथ्यात्वी पापात्मक कर्मों को पुण्यात्मक रूप में बदल नहीं पाते ... जो व्यक्ति घोर मिथ्यात्वी होते हैं, वे प्रायः इन्द्रिय-विषयभोगों में राग-द्वेष के कारण अपनी इस स्वतंत्रता का उपयोग नहीं कर पाते। उन्हें प्रायः अपने हिताहित का, धर्म-अधर्म का, पुण्य-पाप का या कल्याण-अकल्याण का कुछ भी ज्ञान-भान नहीं होता और न ही उनकी उन तत्त्वों के ज्ञान में रुचि होती है। वे प्रायः हिंसादि अशुभ आस्रवों में पड़े रहकर पापबन्ध करते रहते हैं। हमारे पूर्वबद्ध कर्म अभी सत्ता में पड़े हैं, इसका भी उन्हें कुछ भान नहीं होता। पूर्वकृत पुण्य (शुभ कर्मों) के उदय में आने पर पुण्यफल के रूप में भविष्य में पुण्यबल को बढ़ाने के सभी कुछ साधन, निमित्त या वातावरण प्राप्त होने पर भी उनके द्वारा सदुपयोग न होने से वे पुण्यात्मक संस्कार पापात्मक रूप में संक्रमित होते रहते हैं। हितोन्मुख होने के अवसर जीवन में अनेकों बार मिलने पर भी उनका सदुपयोग न करने के कारण अपने जीवन की दिशा नहीं बदल सके। फलतः सत्ता में पड़े हुए वे कर्म पापात्मक बनकर उदय में आते रहे। जिससे वे जीव उत्तरोत्तर अधिकाधिक पतन की ओर जाते रहे। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का यही हाल हुआ। यदि उक्त अवसर का सदुपयोग कर लेते तो वे ही पापात्मक कर्म पुण्यात्मक रूप में संक्रमित होने लगते। उन कर्मों की स्थिति में उत्कर्षण (वृद्धि) के बजाय अपकर्षण होने (घटने) लगता। एक बार भी पापात्मक कर्म-संस्कार पुण्योन्मुख होने पर उत्तरोत्तर अधिकाधिक पुण्यात्मक होते जाते हैं तत्पश्चात् एक बार वे पापात्मक कर्म-संस्कार पुण्योन्मुख हो जाते तो भविष्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक पुण्यात्मक बन-बनकर अधिकाधिक उत्थान की ओर बढ़ते जाते। जिस प्रकार एक घड़ा सीधा रख देने पर उस पर जितने भी घड़े टिकाये जायेंगे, वे सब सीधे ही रखे जायेंगे। इसी प्रकार एक बार कर्म-संस्कार के पुण्योन्मुख होने पर बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण आदि जितने भी कारण उसकी सीमा में होंगे, वे सब पुण्यात्मक ही होंगे। अर्थात् एक बार पुण्यात्मक कर्म-संस्कार की दृढ़ता के साथ अधीनता प्राप्त हो जाने पर व्यक्ति उत्तरोत्तर अधिक तेजी के साथ पुण्य की ओर ही जायेगा। पुण्य का उदय होने पर यदि व्यक्ति लौकिक फलाकांक्षारहित होकर विवेकपूर्वक उसका सदुपयोग करे तो उसके पुण्यात्मक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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