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________________ ॐ योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण १८५ * बताया है। दोनों के स्वरूप में भी अन्तर है। शास्त्र में कहा है-पुण्य से शुभ कर्म का बन्ध होता है और निर्जरा से शुभ-अशुभ कर्मों का अंशतः क्षय होता है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताया गया है-वन्दना से तथा निर्जरा से बहुत से कर्मों का क्षय होता है। निर्जरा द्वादशविध तपश्चरणात्मक होती है, इस अपेक्षा से सम्यक् तप से कर्मों की निर्जरा होती है। पुण्य से शुभ कर्मों का बन्ध होता है, जबकि निर्जरा से शुभ-अशुभ दोनों कर्मों का क्षय होता है। निर्जरा से करोड़ों भवों के संचित बहुत से कर्मों का क्षय होता है। इस अपेक्षा से निर्जरा मोक्ष (सर्वकर्ममुक्ति) का अंश है, जबकि पुण्य शुभ कर्मों का आस्रव और बन्ध है। ‘उत्तराध्ययन' में कहा गया हैपुण्य और पाप (शुभ और अशुभ कर्मों) के पुद्गलों का सर्वथा क्षय (निर्जरण) होने से मोक्ष होता है। इसके विपरीत पुण्य तत्त्व के नौ प्रकार हैं और ‘प्रज्ञापनासूत्र' के अनुसार-सातावेदनीय, उच्च गोत्र, मनुष्यायु, देवायु, शुभ नाम आदि ४२ पुण्य रूप (पुण्यफल) हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार-सातावेदनीय, सम्यक्त्व-मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र, ये ८ पुण्य प्रकृतियाँ (पुण्यफल) हैं। पूर्वोक्त ४२ प्रकृतियों के उदय से जीव पुण्य का फल भोगता है, जबकि सकामनिर्जरा हो तो उससे कर्मों की मुक्ति होती है। सम्यग्दृष्टि, व्रती, महाव्रती आदि के पुण्यबन्ध के साथ-साथ संवर और निर्जरा भी संभव है। तथारूप श्रमण-माहन को दान देने से निर्जरा के साथ पुण्यबन्ध भी होता है तथारूप श्रमण-माहन को निर्दोष दान देने से श्रमणोपासक को एकान्त निर्जरा बताई है, परन्तु वहाँ एकान्त मोक्ष नहीं बताया, वह निर्जरा अशुभ कर्मों के क्षय की अपेक्षा कही है, परन्तु साथ ही दान से शुभ कर्म का बन्ध भी होता है, वह धर्मदान होने से पुण्य का बन्ध होता है, क्योंकि धर्मदान से पुण्य और निर्जरा दोनों होते हैं। "भगवतीसूत्र' में कहा गया है तथारूप श्रमण-माहन को प्रासुक और निर्दोष आहारादि देकर जो श्रमणोपासक समाधि उत्पन्न करता है, उन्हें समाधि प्राप्त कराने वाला श्रमणोपासक स्वयं उसी समाधि को प्राप्त करता है। यहाँ भी आहारादि दान पुण्यबन्ध का कारण है, जिससे समाधि रूप साता प्राप्त होती है। १. (क) वेदणएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ; उच्चगोयं कम्मं निबंधइ। सोहग्गं च णं अपडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ। दाहिणभावं च णं जणयइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. १० (ख) भवकोडि-संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ। -वही, अ. ३0, गा. ६ (ग) दुविहं खवेऊण य पुण्ण-पावं, निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के। -वही, अ. २१, गा. २४ (घ) सायावेयणिज्जं मणुस्साउए देवाउए सुहणामस्स णं उच्चागोयस्स | . -प्रज्ञापना, पद २३, उ.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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