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________________ * १८६ % कर्मविज्ञान : भाग ७ * श्रमण निर्ग्रन्थ को आहारादि दान देने से उत्कृष्ट पुण्य एवं निर्जरा दोनों फल प्राप्त होते हैं ____ भगवतीसूत्र' पंचम शतक, उ. ६ में तथा 'स्थानांगसूत्र' के तृतीय स्थान, उ. १ में बताया गया है कि "तीन कारणों से जीव शुभ दीर्घायुष्य कर्मबन्ध करता है, जो प्राणातिपात, मृषावाद किये बिना तथारूप श्रमण निर्ग्रन्थ को वन्दन, नमस्कार, सत्कार, सम्मान करके तथा कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप चैत्य (ज्ञान) रूप मानकर, पर्युपासना करके मनोज्ञ एवं प्रीतिकारी अशनादि चतुर्विध आहार प्रतिलाभित करता (देता) है।" यह भी उत्कृष्टपात्र में दान-पुण्य के बीजारोपण का फल है। ‘सुखविपाकसूत्र' के अनुसार-सुदत्त अनगार को सुमुख गाथापति ने प्रासुक एवं निर्दोष आहार विधि-द्रव्य-दाता और पात्र की शुद्धिपूर्वक देने से संसार परित्त किया और देवगति का आयुष्य बाँधा। तथैव भगवान महावीर को विजय गाथापति ने तथा (भगवान महावीर के लिए) सिंह अनगार को रेवती गाथापत्नी ने प्रासुक एवं निर्दोष आहार दिया था, जिसके कारण संसार परित्त किया और देवायुष्यबन्ध किया। यहाँ भी संसार परित्त किया, वह निर्जरा है और देवायुष्यरूप शुभ कर्मबन्ध दान की तीव्र भावना के कारण तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया, वह पुण्य फल है। इसी प्रकार तथारूप श्रमण निर्ग्रन्थ को निर्दोष-प्रासुक आहारादि दान देने से तीर्थंकर नामकर्म का भी उपार्जन भव्य जीव कर पाता है। वह पुण्य का फल है। अतः अशुभ कर्मों का क्षय होने से संसार (जन्म-मरण) घटता है, वहाँ निर्जरा होती है और शुभ कर्म का बन्ध होता है, वहाँ पुण्य होता है। पिछले पृष्ठ का शेष(ङ) सवेद्य-सम्यक्त्व-हास्य-रति-पुरुषवेद-शुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम्। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ८, सू. २६ (च) 'प्रश्नोत्तर-मोहनमाला, भा. ३' से भाव ग्रहण, पृ. १४९ (छ)- - - - समणोवासएणं तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिज्जेणं असण पाण-खाइम-साइमं पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति। समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलभति। -भगवतीसूत्र, श. ७, उ. १, सू. ९ १. (क) तिहिं ठाणेहिं जीवा सुभदीहाउअत्ताए कम्मं पगरेंति तं.-णो पाणे अइवइत्ता भवइ; णो मुसंवइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा णिग्गंथं वा वंदित्ता नमंसित्ता सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेत्ता मणुन्नेणं पीइकारएणं असण-पाण-खाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ, इच्चेएहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति। -स्थानांग, ठा. ३, उ.१; भगवती ५/६ (ख) देखें-सुखविपाकसूत्र, अ. १ में सुबाहुकुमार का जीवनवृत्त (ग) देखें-भगवतीसूत्र, श. १५ में रेवती गाथापत्नी का वृत्तान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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