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________________ वचन-संवर की सक्रिय साधना 8 १६५ 8 फिर दासी को उठाकर आश्वासन दिया-“घवरा मत ! संसार की कोई भी चीज अविनश्वर नहीं है। एक न एक दिन नष्ट होने वाली है। चिन्ता मत कर। जा, तीसरा घड़ा ले आ।" तीसरा घड़ा भी देवमाया से उसके हाथ से छिटककर जमीन पर गिर पड़ा। तब भी अत्वंकारी के चेहरे पर रोष, विषाद की कोई रेखा नहीं थी। देवरूप साधु ने अत्वंकारी को धन्यवाद दिया और उसकी क्षमाशीलता की प्रशंसा की। घड़े देवमाया से पुनः जैसे थे, वैसे ही हो गए। वह क्षमाशीलता, उदारता और गम्भीरता की परीक्षा में उत्तीर्ण हुई। यह है मन-वचन-काय-संवर का व्यावहारिक रूप ! अगर अत्वंकारी ने तन-मन-वचन पर ब्रेक न लगाया होता, उसके तन-मन-वचन में रोष और द्वेष उभरता तो सम्भव है, दासी के मन में भी भय, घबराहट और विद्रोह की भावना उमड़ती। परन्तु अत्वंकारी के व्यवहार से दोनों के मन में शान्ति रही। सहृदयतापूर्ण शब्दों में उपालम्भ से उभय पक्ष को लाभ वचन पर ब्रेक लगाने के साथ-साथ एक बात का और ध्यान रखना चाहिए। जिस प्रकार रोगी का ऑपरेशन ऑपरेशन-थियेटर में किया जाता है तथा ऑपरेशन करने वाला सर्जन जितनी आवश्यकता हो, उतनी ही जगह में चीरफाड़ करता है, इसी प्रकार भूल करने वाले व्यक्ति को भूल के लिए विलम्ब से उपालम्भ देना चाहने पर भी वह अधिकृत पुरुष उसे जाहिर में या सबके सामने नहीं, एकान्त में ही उतने ही नपे-तुले शब्दों में उपालम्भ दे, अनावश्यक एक भी शब्द अधिक न बढ़ाए, क्योंकि प्रथम तो सामने वाले की भूल के लिए तुरन्त उलाहना देने वाला व्यक्ति आवेश में होता है, वह अपने पर कंट्रोल नहीं रख सकता। आवेश में व्यक्ति यह नहीं सोच पाता कि इस व्यक्ति को उपालम्भ कब, कहाँ और किन शब्दों में देना आवश्यक है ? वह अपने अहंकारवश, एकान्त में न कहकर चार आदमियों के बीच भूल करने वाले को झाड़ने लगता है। उसे इस बात का भान नहीं रहता कि सामने वाले को कितना कहना आवश्यक है, कितना अनावश्यक ? वह जो भी मन में आया, उन कटु, अंटसंट और अनुचित शब्दों में उसे उपालम्भ देता है। मनोवैज्ञानिकों के इस सुनहरे परामर्श-Never say a word or write a letter when you are angry. (अर्थात् रोषावेश के समय कदापि एक शब्द भी न कहें और न ही पत्र लिखें) को क्रोधाविष्ट होकर भूल जाते हैं। क्रोधावेश में या वार्थपूर्ण आवेश में आकर किसी को कटु, व्यंगात्मक या तीखे तमतमाते शब्दों में 1. 'उपदेश-प्रसाद भाषान्तर' से संक्षिप्त १. 'हंसा ! तू झील मैत्री सरोवर में' से भावांश ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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