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१६४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ४
मधुरतापूर्वक कहा जाय, जिससे उसके अहं (स्वाभिमान) को तथा हृदय को चोट नहीं लगे और जो काम कटुता से नहीं हो पाता, उसे नम्रता से, मृदुता से किया जा सके।" सचमुच इतनी मध्यावधि में सामने वाले व्यक्ति को कहने योग्य मैटर भी पूरा सेटिंग हो जाता है दिल-दिमाग में। फिर तो मालिक के कहने के साथ ही उसका वचन शिरोधार्य हो जाता है। उसके मन में मालिक के प्रति भय और आशंका के जो. घने बादल छाये हुए थे, वे भी विखर जाते हैं । मालिक और नौकर दोनों के दिल हलके हो जाते हैं, आघात समाप्त हो जाता है । परस्पर प्रेमभाव बढ़ने के साथ ही भूल करने वाले व्यक्ति में अपनी भूल को स्वीकारने और सुधारने की, मालिक द्वारा दिये गए सुझाव पर अमल करने की नैतिक हिम्मत एवं आतुरता भी उसमें आ जाती है । किसी प्रकार के द्वेष, संक्लेश, तकरार या प्रतिशोध की दुर्भावना उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार सामने वाले की और मालिक की भूल - अर्थात् मन-वचन या काया की प्रवृत्तियों की विकृति ( बिगाड़), यानी सीधी राह चलने की अपेक्षा टेढ़ी राह चलना; दूर करने की शक्ति दोनों में आ जाती है । '
अत्यंकारी को कर्मानव-निरोधरूप संवर एवं शान्त जीवन का महालाभ
अत्यंकारी (अच्चंकारी) भट्टा बहुत जगह भटकने और दुःख और संकट के थपेड़ों से आहत होने के बाद अपने भाई के साथ वापस आई तो बिलकुल बदल गई थी। अब वह क्रोधी और बात-बात में तुनुकमिजाजी अत्यंकारी न रहकर क्षमाशील, गंभीर और उदारहृदया अत्वंकारी बन गई थी। उसके पति ने उसे अपना लिया। अब वह सहिष्णु, शान्त, गम्भीर और क्षमाशील बन गई। अपने यहाँ रहने वाले दास-दासियों के प्रति भी उसका व्यवहार बिलकुले कोमल और उदार हो गया था। उसकी क्षमाशीलता की प्रशंसा देवलोक में भी पहुँची । एक देव उसकी परीक्षा लेने के लिये दुःसाध्य रोगग्रस्त साधु का रूप बनाकर भिक्षापात्र लिये अत्वंकारी के यहाँ पहुँचा और पूछा - " देवानुप्रिये बहन ! क्या तुम्हारे यहाँ लक्षपाक तेल है ? मुझे अपने रोग की चिकित्सा के लिये चाहिए ।" अत्यंकारी ने वन्दना करके कहा-“हाँ, भगवन् ! मेरे यहाँ वह तेल है। उसने अपनी दासी को लक्षपाक तेल का घड़ा लाने को कहा । दासी घड़ा लेकर आ रही थी । रास्ते में ही देवमाया से वह गिर पड़ी। तेल का घड़ा फूट गया ।" यह देख अत्यंकारी तुरंत दौड़कर उस दासी के पास आई, उसे उठाया और प्रेम से पूछा - "बेटी ! तेरे कहीं लगी तो नहीं । जा दूसरा घड़ा ले आ ।” जब दूसरा घड़ा लेकर वह आ रही थी, तव भो पहले की तरह गिर पड़ी। घड़ा फूट गया। इतने कीमती तेल का घड़ा फूटने पर भी अत्यंकारी के दिल में दासी के प्रति रोष या घड़ा फूटने का कोई अफसोस नहीं था । उसने
१. 'हंसा ! तू झील मैत्री सरोवर में से भावांश ग्रहण
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