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________________ ॐ वचन-संवर की सक्रिय साधना 8 १६३ ॐ इससे भी अधिक नुकसान है, क्रोध और मानकषायवश बोले गए असह्य और तीक्ष्ण वचन से पापकर्मबन्ध और वैर की परम्परा। यदि उस समय मालिक थोड़ा धैर्य रखे और यह सोचे कि मेरे ही किसी पूर्वबद्ध अन्तरायकर्म का उदय होने से ऐसा हुआ, वह चीज मेरे पास न रही, नौकर तो निमित्त है, इसने जान-बूझकर उस चीज का नुकसान नहीं किया। मूल उपादान तो मेरी कर्मबद्ध आत्मा है। निमित्त को दण्ड क्यों दूं। इसे भला-बुरा कहने से कोई लाभ नहीं होगा। उलटे, कषायवश पापकर्म का और नया बन्ध होगा, नौकर के मन में भी उसकी तीव्र प्रतिक्रिया होने से सम्भव है, विद्रोह की आग इसके मन में भी भड़क जाए। दूसरी हानि यह है कि इस समय क्रोधादिपूर्वक तीखे वाक्यवाणों का प्रहार करने से मैं वाक्-संवर तथा अकषाय-संवर इन दोनों लाभों से वंचित हो जाऊँगा। इस प्रकार का चिन्तन करके यदि नौकर के प्रति सहानुभूतिपूर्वक प्रेम से मधुर शब्दों में मालिक उसे सहलाए और पूछे-“तेरे कहीं चोट तो नहीं लगी न? कोई बात नहीं। ससार में जितनी भी वस्तुएँ मिलती हैं, वे सभी विनश्वर हैं। एक न एक दिन तो नष्ट होनी ही थी। चिन्ता मत कर !" इन शुभ शब्दों के सिवाय एक भी अशुभ और मर्मस्पर्शी शब्द जबान से न निकले, इस प्रकार की पहरेदारी जीभ पर लगा दें तो बहुत बड़ी उपलब्धि हो सकती है। मालिक के कोपयुक्त संभावित डाँट-फटकार के कटु एवं चुभने वाले शब्दों की चोट से बचने का नौकर के मन में आशातीत आनन्द उत्पन्न होगा। मेरी भूल जान-देखकर भी मालिक ने मुझे डाँटा-फटकारा नहीं, चुपचाप मेरी गलती सहन कर ली। मालिक के इस उदारतापूर्ण व्यवहार से नौकर के मन में मालिक के प्रति आदरभाव बढ़ता है, सचमुच मालिक देवता हैं, महान् हैं, मेरे प्रति उनके हृदय में लबालब वात्सल्य है। वह मालिक को पितातुल्य समझता है, जी-जान से उनकी सेवा करता है। मालिक के प्रति नौकर का यह आदरभाव उसके हृदय में गहरी छाप छोड़ देता है। फलतः चार-छह घंटों बाद मालिक यदि उस भूल के विषय में या अन्य बातों के बारे में जो कुछ कहता है, नौकर उसे सहर्ष स्वीकार कर लेता है, अपनी गलती के लिए क्षमा भी माँग लेता है। __दोनों पक्षों को कई प्रकार से संवर लाभ : क्यों और कैसे ? __ऐसा करने से एक तो दोनों ओर से मनःसंवर सहित वाक-संवर का लाभ मिलता है। अशुभ योग से निवृत्ति होने से शुभ योग-संवर अर्जित हो जाता है। दूसरा लाभ यह है कि किसी भी नुकसान का घाव ताजा होता है, तब जरूर गहरा होता है, मगर ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों-त्यों उसकी गहराई कम होती जाती है, व्यक्ति आवेश, रोष और तनाव से मुक्त होकर शान्त और स्वस्थ हो जाता है। फलतः तीसरा लाभ यह होता है कि उतना विलम्ब करने से बीच के समय में व्यक्ति को सोचने का अवसर मिल जाता है कि सामने वाले को किन शब्दों में, किस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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