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ॐ १५८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
मनुष्य ऐसे भूल बताने वालों की बातें सुनी-अनसुनी कर देते हैं, उद्धत होकर उनके मुँह पर कस देते हैं-"पहले आप अपनी गलती सुधार लीजिए। दुनियाँ को. सुधारने चले हैं, पहले अपने घर, परिवार और जाति में जो बिगाड़ हो रहा है, उसे तो सुधार लें।" बार-बार टोकने की आदत से भी वैरानुबन्ध की संभावना
कई लोगों की यह आदत होती है, वे अनधिकार चेष्टावश बात-बात में दूसरों को टोकते रहते हैं। अहंकारी मालिक नौकर या मजदूर को, अध्यापक विद्यार्थी को, पिता अपने किसी पुत्र को जब-तब बार-बार टोकता रहता है, यह आदत भी बहुधा सामने वाले की भूल से भी बड़ी भूल बन जाती है। बार-बार टोकने की आदत से सामने वाला व्यक्ति ढीठ बनकर सुन लेता है, प्रायः अपनी भूल नहीं सुधारता; बल्कि वह सोचता है-इनका कहने का काम है, मेरा काम सिर्फ सुनने का है। लापरवाही से बार-बार वस्तु को बिगाड़ देने की या किसी नौकर आदि की बुरी आदत की अपेक्षा उसे बार-बार टोकने की आदत अधिक खतरनाक हो. सकती है। इससे बार-बार टोकने वाले व्यक्ति में सामने वाले के प्रति रोष, द्वेष आदि की वृत्ति होने से अशुभ कर्म का गाढ़ बन्ध तो होता ही है, वैर की परम्परा भी बढ़ती है। जिसको बार-बार टोका जाता है, उसमें कभी-कभी रोषवश घोर द्रव्य-भावहिंसारूप रौद्रध्यान और उससे घोर पापकर्म का बन्ध एवं उसके उदय में आने पर घोर पीड़ा या सजा भोगनी पड़ती है। बार-बार टोकने का दुष्परिणाम : अतिरोषवश मरकर सर्पयोनि में ___चण्डकौशिक सर्प का जीव पूर्व-भव में एक साधु था। एक दिन वह अपने शिष्य के साथ भिक्षाचर्या करके उपाश्रय की ओर आ रहा था। रास्ते में एक मरी हुई मेंढकी पर उसका पैर अनजाने में पड़ गया। इसे देखकर शिष्य ने कहा-"गुरुजी ! आपके पैर के नीचे दबकर मेंढकी मर गई है। इसका प्रायश्चित्त लें।" गुरु ने समाधान किया-"वत्स ! मेंढ़की मरी हुई थी, अनजाने में मेरा पैर पड़ गया, इसके लिए 'मिच्छामि दुक्कडं'। परन्तु शिष्य नहीं माना, वह हठ पर चढ़ गया और थोड़ी-थोड़ी देर बाद गुरु को टोकने लगा-"गुरुजी ! याद रखना, प्रायश्चित्त लेना मत भूलना।" परन्तु हठाग्रही शिष्य उपाश्रय पहुँचने तक तथा बाद में भी आहार करने तक पुनः-पुनः गुरु को टोकता रहा। संध्या समय जब प्रतिक्रमण कर रहे थे, तब फिर शिष्य ने टोका-"गुरुजी ! मेंढकी का प्रायश्चित्त लिया या नहीं ? गुरु के द्वारा बार-बार समाधान करने पर भी हठी शिष्य नहीं मान रहा था। बार-बार टोकने और उसी बात की रट लगाने के कारण गुरु अत्यन्त कोपाविष्ट हो गए और
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