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________________ ॐ योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल * १४७ 8 संत एकनाथ के विधायक दृष्टिकोण से महिला की वृत्ति का परिवर्तन संत एकनाथ किसी के यहाँ सुबह-सुबह भिक्षा के लिए गये। गृहिणी उस समय सफाई के काम में व्यस्त थी। आँगन में पोंछा लगा रही थी। उसने झल्लाते हुए वही पोंछा संत की ओर फेंककर गुस्से से कहा-“लो, यह भिक्षा !'' संत एकनाथ ने किसी प्रकार का प्रतिकार किये बिना वह पोंछा उठा लिया। सहजभाव से अपने आश्रम पर चले आए। आश्रम में आकर संत ने सोचा-“मुझे भिक्षा में प्राप्त इस वस्तु का तिरस्कार करने का कोई अधिकार नहीं है।" उन्होंने पास ही बहते झरने के पानी से उस पोंछे को रगड़कर धोया और सूखने दे दिया धूप में। शाम को आश्रम में आरती होने जा रही थी। संयोगवश रुई न होने से बाती के बिना दीपक कैसे जलता? अतः संत ने उसी पोंछे के कपड़े की बाती बनाई और दीपक का प्रकाश जगमगा उठा। संत ने शुभ भाव से प्रार्थना की-“भगवन् ! जिस तरह से यह बाती आश्रम में प्रकाश बिखेर रही है, उसी तरह उस भिक्षादात्री बहन के मन को भी प्रकाशित करे।" संयोगवश वह बहन भी आरती के समय उपस्थित थी। उसने यह सुना तो लज्जा और पश्चात्ताप से भर गई। उसने संत एकनाथ जी से क्षमा माँगी और भविष्य में क्रोध,न करने का संकल्प किया। प्रतिक्रिया-विरति से भी अयोग-संवर सुलभ इसी प्रकार कष्ट और विपत्ति आने पर या दूसरे के द्वारा कष्ट दिये जाने पर शुभ योग से अयोग-संवर की ओर प्रगतिशील साधक उसे अपने कर्मों की निर्जरा का शुभ अवसर मानकर समभाव से सह लेता है, प्रतिक्रिया नहीं करता तथा निमित्तों को न कोसकर उन्हें अपने लिए कर्मक्षय का अवसर देने में सहायक और सहयोगी मानता है। भगवान महावीर ने अनार्य देश में कष्ट देने वालों को अपने घोर कर्म काटने का अवसर देने में सहायक माना। प्रतिक्रिया न करके उस कर्म को वहीं समभाव से भोगकर क्षय कर दिया और आत्म-भावों में रमण करने लगे। इसी प्रकार व्यक्ति अनेक दुःखों, पीड़ाओं, कष्टों और प्रतिकूलताओं में विधेयात्मक दृष्टि से सोचे कि मैं अनन्त सुखरूप हूँ, अनन्त ज्ञानदर्शनरूप हूँ, अनन्त शक्तिमय हूँ। यह दुःख शरीर को हो सकता है, परन्तु मैं अगर महसूस न करूँ, सबपन न करूँ तो आत्मा को कोई दुःख नहीं है।" साधारण व्यक्ति भी कम से कम अशुभ योग में प्रवृत्त न हो, अपने योगों को शुभ में प्रवृत्त करता रहे, साथ में आत्मदृष्टि, स्वरूपलक्षीदृष्टि एवं आत्म-स्थिरता आत्मौपम्यदृष्टि रखे तो अपना जीवन सुख-शान्तिमय बना सकता है, शुभ कर्म से कर्ममक्ति की ओर प्रयाण कर सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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