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१४६ ४ कर्मविज्ञान : भाग ७
पनिहारिनों की तरह लक्ष्य में एकाग्रता हो तो सहज अयोग-संवर हो जाता है
जिस प्रकार दो-तीन पनिहारिनें अपने-अपने सिर पर पानी से भरे दो-दो घड़े रखकर चलती जाती हैं; बीच-बीच में आपस में बातें भी करती हैं, परन्तु उनका ध्यान घड़े की ओर रहता है, इसी तरह अयोग-संवर का साधक भी वीतराग प्रभु का तत्त्वज्ञानरूपी घड़ा अपने सिर पर रखकर शुभ योगरूपी मार्ग से जीवन-यात्रा करता है, परन्तु यदि उसका ध्यान परमात्मा में या परमात्मा द्वारा प्रज्ञप्त तत्त्वज्ञान में या कर्ममुक्तिरूप लक्ष्य में रहता है। अर्थात् वह सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते या जीवन के विविध कार्यकलाप करते अथवा अपना अन्यान्य शारीरिक, मानसिक, वाचिक, बौद्धिक आदि कार्य करते हुए अपना ध्यान एकमात्र वीतराग परमात्मा में या वीतराग परमात्मा के तत्त्वज्ञान में या मोक्षरूप लक्ष्य में रखता है, तो वह सहज ही अयोग-संवर उपार्जित कर लेता है; क्योंकि ऐसा साधक वही प्रवृत्ति तन- मन-वचन से करेगा, जो परमात्मा द्वारा मान्य हो, उनके द्वारा प्ररूपित आगमसम्मत हो, उनकी आज्ञा में हो या कर्ममुक्ति के लक्ष्य के अनुकूल हो, वीतरागता - प्राप्ति में सहायक हो। ऐसा सम्यग्दर्शन- सम्पन्न उत्कृष्ट शुभ योग-संवर-साधक शुभ योग के मार्ग से यात्रा करता-करता एक दिन पूर्ण अयोग संवर की मंजिल तक पहुँच जाएगा।'
विधायक दृष्टिकोण के अभ्यासी साधक के लिए अयोग-संवर सुलभ
अयोग-संवर की मंजिल पर पहुँचने वाला मुमुक्षु यात्री शुभ योग-संवर के मार्ग में आने वाले अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों, प्रिय-अप्रिय लगने वाले संयोग-वियोगों, उपसर्गों, कष्टों, कठिनाइयों या विघ्न-बाधाओं को देखकर अगर हताश - निराश होकर बैठ गया तो वहीं उसकी यह साधना ठप्प हो जाएगी। इसलिए उसे अपनी संवर- यात्रा में आने वाली विघ्न-बाधाओं को देखकर उस पर विधायक दृष्टि (positive thinking) से सोचना तथा प्रतिकूल को अनुकूल, दुःख को सुख Area का अभ्यास करना है।
विश्व में वे ही व्यक्ति अयोग-संवर की मंजिल पा सके हैं, जिन्होंने अपने प्रति किसी की प्रतिकूल क्रिया, प्रतिकूल परिस्थिति, विपरीत घटना को अनुकूल घटना में बदला है, जिनकी दृष्टि रचनात्मक या विधेयात्मक रही है। अपनी जीवन-यात्रा में आने वाले अवरोधों को उन्होंने अप्रतिक्रियात्मक - शान्त पुरुषार्थ से दूर किया है, उन्होंने दूसरों की गलत प्रतिक्रियाओं के उबाल को शान्त कर दिखाया है ।
१. ज्यों पनिहारी कुंभ न विसरै, चकवो न विसरे भान ।
- विनयचंद चौबीसी
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