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________________ * योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल १४५ निःस्वार्थभाव से संयम हेतु से की जाने वाली प्रवृत्ति भी निर्दोष है कदाचित् अल्पज्ञतावश संयम के हेतु परहित बुद्धि से ऐसी भी प्रवृत्ति करनी पड़े, जिसमें कुछ द्रव्यहिंसा होती हो, परन्तु भावहिंसा नहीं हो, बल्कि उस प्रवृत्ति से अनेक जीवों को धर्मबोध मिलता हो, अनेक जीव कल्याणमार्ग प्राप्त करते हों, तो वैसी प्रवृत्ति (जैसे साधु जीवन में आहार, ग्रामानुग्रामविहार, धर्मोपदेश आदि) निःस्वार्थभाव से की जाने पर उसमें अशुभास्रव का लेप नहीं लगता । 'बृहत्कल्पभाष्य' में कहा गया है-“संयम के हेतु से की जाने वाली प्रवृत्तियाँ निर्दोष होती हैं, जैसे वैद्य द्वारा किया जाने वाला व्रणच्छेद (फोड़े का ऑपरेशन) आरोग्य के लिये होने से निर्दोष होता है । " आशय यह है कि संयमी जो भी विचार करेगा, बोलेगा या काया से कर्त्तव्य करेगा वह सब संयम की सीमा में रहकर करेगा, उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम का पहरा रहेगा। उसे प्रति क्षण आत्मभान रहेगा। असंयमी के प्रायः मर्यादा नहीं होती । अविरति सम्यक्त्वी साधक के अपेक्षाकृत मर्यादा होती है; तो भी वह सर्वविरति संयमी के जितनी और जैसी नहीं होती ।' भगवदाज्ञा समझकर अनासक्त निःस्पृह एवं समर्पणभाव से कार्य करने वाला संवर का आराधक है। ऐसे कर्ममुक्ति के लक्ष्य के प्रति जाग्रत की संयमलक्षी या रत्नत्रय - साधनारूप कोई भी प्रवृत्ति होगी, वह भगवदाज्ञा में होगी। जो ग्लान की सेवा करता है, वह मेरी (प्रभु की) सेवा करता है तथा आपकी आज्ञा का परिपालन ही आपकी सेवा-भक्ति है। जैनाचार्य की इस उक्ति के अनुसार भगवदाज्ञाधीन कार्य ही भगवान की सेवा-पूजा या भक्ति- बहुमान है, यह समझकर, अर्थात् प्रत्येक कार्य को भगवद्-भक्ति, प्रभु-पूजा या भगवदाज्ञा-पालन समझकर उसे प्रसन्नचित्त से, अनासक्त एवं निःस्पृह होकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक समर्पणभाव से करेगा। गीता में भी कहा है- "स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः । " - अपने कर्त्तव्य कर्म से उस (भगवान) की अर्चना करके मानव सिद्धि प्राप्त करता है । ' Work is worship' की उक्ति भी प्रसिद्ध है । १. (क) संयमहेऊ जोगो पउंज्जमाणो अवोसवं होइ । जह आरोग्ग- णिमित्तं, गंडच्छेदो व विज्जस्स ॥ (ख) 'सिद्धि के सोपान' (मुनि श्री संतबाल जी), पद्य ५ के विवेचन से, पृ. २४ २. (क) स्वरूपलक्षे जिन - आज्ञा - आधीन जो । (ख) जे गिलाणं पडियरइ, से ममं पडियर । (ग) तव सपर्यास्तवाज्ञा-परिपालनम् । (घ) भगवद्गीता, अ. १८/४६ Jain Education International - बृहत्कल्पभाष्य ३९४८ - अपूर्व अवसर, पद्य ५ - दशवैकालिक नियुक्ति -अयोग व्यवच्छेदिकां (हेमचन्द्राचार्य) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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