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* १४४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
भावार्थ स्पष्ट है। आत्म-स्थिरतापूर्वक भावक्रिया या धर्मक्रिया करता हुआ, अन्त में अयोग-संवर की-अक्रियता की स्थिति प्राप्त कर सकता है। सम्यग्दृष्टिज्ञानी के विचार, वाणी और व्यवहार के साथ आत्मा का संयोग ही नहीं, उसकी स्थिरता = चिरस्थापिता भी होती है, इसलिए कैसी भी विकट परिस्थिति में आत्म-स्थिरता को खोता नहीं।
प्रत्येक अनुकूल परिस्थिति में सामान्य व्यक्ति अहंकार, मद, गर्व से युक्त हर्षाविष्ट हो जाता है और प्रतिकूल परिस्थिति में उद्विग्न, रोष, घृणा, द्वेष आदि से ग्रस्त हो जाता है। किन्तु कभी-कभी विशिष्ट अयोग-संवर-साधक भी आत्म-स्मृति चूककर किसी तरह की प्रतिक्रिया कर बैठता है। अतः प्रश्न होता है कि स्थायीरूप से आत्म-स्थिरता लक्ष्य के प्रति स्थिरता या दूसरे शब्दों में कर्ममुक्ति के प्रति स्थिरता कैसे रहे ? ताकि अयोग-संवर की दिशा में बढ़ सके। आत्म-स्थिरता प्रति क्षण रखने के लिए मुख्य तीन उपाय
आत्म-स्थिरता प्रति क्षण रह सके, इसके लिए मुख्यतया तीन उपाय हैं(१) कर्ममुक्ति के लक्ष्य के प्रति जागृति रहे, (२) प्रतिक्रिया-विरति का प्रबल अभ्यास, (३) विधेयात्मक चिन्तन।
'कर्मयोग' में इस तथ्य का स्पष्टतः प्रतिपादन किया गया है-“कर्ममुक्तिलक्षीसाधक पहले तो उक्त कार्य को संयम के हेतु से तोलता है। फिर द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव की अपेक्षा स्व-कर्त्तव्य कर्म की उपयोगिता समझता है। तत्पश्चात् यदि वह हर्ष और शोक में सम रह सकता है, सब कार्यों में अनासक्त रहकर क्रियाकाल में प्रसन्न मुख होकर कार्य कर सकता है, तो वह स्वयं को उस कार्य के करने का अधिकारी समझता है। फिर उसे मोह-निद्रा छोड़कर स्वात्म-बोध में जाग्रत रहकर उत्साहपूर्वक स्वात्म-कार्य में जुट जाना चाहिए। साथ ही ऐसा अयोग-संवर के साधक के कर्तृत्व का मोह छोड़कर साक्षीभूत आत्मा के द्वारा स्वाधिकार प्राप्त कर्तव्य का पालन करना चाहिए।"१
१. (क) अपेक्षयाऽस्ति सर्वेषां कर्मणामुपयोगिता।
स्वस्मै द्रव्यादिभिआता, तस्यास्ति कर्मयोग्यता ॥२९॥ (ख) प्रसन्नास्यः क्रियाकाले समानो हर्षशोकयोः।
निःस्पृहः सर्वकार्येषु तस्यास्ति कर्मयोग्यता॥३६॥ (ग) मोहनिद्रां परित्यज्य जागृहि स्वात्मबोधतः।
उत्तिष्ठ, स्वात्मकर्माणि कुरुष्वोत्साहतः॥५९॥ (घ) त्यक्त्वा कर्तृत्वसम्मोहं, साक्षीभूतेन चात्मना। स्वाधिकारे समायातं स्वीयकर्म समाचरेत्॥१०॥
-कर्मयोग (बुद्धिसागर सूरीश्वर जी म.) से भाव ग्रहण
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