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________________ ॐ योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल ॐ १४३ * आत्म-स्थिरता होती है, वह मन से दूसरों के लिए बुरा चिन्तन नहीं कर सकता। जिसकी वाणी में आत्म-स्थिरता होती है, वह असत्य या छलकपट की भाषा कैसे बोल सकता है ? जिसकी कायिक प्रवृत्ति में आत्म-स्थिरता होती है, वहाँ संयममार्ग के सिवाय अन्यत्र विहरण कर ही कैसे सकता है ? दृष्टि में आत्म-स्थिरता आई कि पाप-वासना, स्वार्थलिप्सा आदि लुप्त हो जाती है। आत्म-स्थिरता आने पर चाहे जैसे घोर परीषह या उपसर्ग के आने पर भी वह अपने' अंगीकृत नियम, यम, प्रतिज्ञा, व्रत, प्रत्याख्यान, संकल्प या स्वीकृत आचार-मर्यादा से कभी डिग या फिसल नहीं सकता। अनुकूल परीषह आने पर भी वह रागादिवश होकर आत्मा के प्रति वफादारी से जरा भी भ्रष्ट या च्युत नहीं होता। जिसकी प्रवृत्ति (कर्म) में आत्म-स्थिरता होती है, उसका शत्रु रहा ही कौन? अर्थात् 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' उसकी जीवन का मूलमंत्र हो जाना स्वाभाविक है। कर्म (प्रवृत्ति) में जब आत्म-स्थिरता आ जाती है, तब समझ लो, संयममार्ग में विहरण प्रारम्भ हो गया। भोजन पास में पड़ा है। कड़ाके की भूख लगी है। ऐसे समय में कोई व्यक्ति अचानक ही उपद्रव करके सारे भोजन को बिगाड़ देता है, यदि कर्ममुक्ति का साधक उस पर गुस्सा करता है, तो भोजन सुधरने वाला नहीं, किन्तु क्रोध करके तो वह अपनी आत्म-स्थिरता चूक जाता है। अतः आत्म-स्थिरता वाला ऐसे अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों और उपसर्गों के अवसर पर शान्त, संतुलित और प्रसन्नतापूर्वक रहने का अभ्यासी अपने द्वारा प्रारम्भ किये हुए कर्म (प्रवृत्ति) के समाप्त होने तक आत्म-स्थिरता में टिका रहेगा। जगत् की कोई भी आफत उस पर बुरा असर नहीं डाल सकेगी। मन-वचन-काया के तीनों योगों को संक्षिप्त करने यानी उनका कम-से-कम प्रयोग करने का सच्चा नुस्खा आत्म-स्थिरता यानी आत्म-स्मृति में स्थिर रहना है। ऐसा व्यक्ति अनुकूल और प्रतिकूल, प्रिय तथा अप्रिय दोनों अवसरों पर सम, प्रसन्न और शान्त रहेगा। इसीलिए श्रीमद् राजचन्द्र जी ने योग निरोधरूप संवर अथवा योगों का संक्षिप्त उपयोग करने हेतु आत्म-स्थिरता को महत्त्व देते हुए कहा है." "आत्म-स्थिरता त्रण संक्षिप्तयोगनी, मुख्यपणे तो वर्ते देह-पर्यन्त जो। घोर परीषह के उपसर्ग भये करी, आवी शके नहि ते स्थिरतानो अंत जो॥"२ १. 'सिद्धि के सोपान' (मुनि श्री संतबाल जी) के हिन्दी अनुवाद से भाव ग्रहण, पृ. १६ २.. (क) श्रीमद् राजचन्द्र जी के 'अपूर्व अवसर' काव्य का पद्य ४ और उसका ‘सिद्धि के सोपान' नाम से विवेचन, पृ. १६-१७ (ख) मोहनिद्रां परित्यज्य, जागृहि स्वात्मबोधतः। - उत्तिष्ठ स्वात्मकर्माणि कुरुष्वोत्साहतः स्वयम्॥ -कर्मयोग (बुद्धिसागर सूरीश्वर जी म.) से भाव ग्रहण, पृ. ५९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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