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________________ * १४२. ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ सर्वकर्ममुक्ति का द्वार खुलता है, केवलज्ञान की ज्योति प्रकट होती है। जब तक धर्मध्यान होता है, तब तक वह आर्त्त-रौद्रध्यान को रोके रखता है। किन्तु इससे भी आगे एक और ध्यान है-शुक्लध्यान। शुक्ल का अर्थ है-पूर्ण शुद्ध, निर्मल, निर्विकार और अयोगरूप संवर। यहीं से पूर्ण अयोग-संवर की भूमिका प्रारम्भ होती है। अयोग-संवर के लक्ष्योन्मुखी साधक शुभ-अशुभ योग का समय-समय पर त्याग करता जाता है और उसकी चेतना निर्मलता का रूप ग्रहण करती जाती है। उस सम्यग्दृष्टि प्रशस्त शुभ योग-साधक का मुख अब केवल शुभ की ओर नहीं, अपितु शुद्धोपयोग की ओर होता है। उसकी यात्रा का लक्ष्य अयोग-संवर के शिखर तक (शैलेशी अवस्था तक) पहुँचना है। सर्वकर्ममुक्ति के साधक का लक्ष्य हैअयोग-संवर के शिखर तक पहुँचना। इसके लिए वह शुक्लध्यान के आदिम दो पापों का अवलम्बन लेता है, शुद्धभाव-शुद्धोपयोग या पारिणामिक (वीतराग) भाव उसके लिए माध्यम बनता है। यह निर्विकार, निरंजन, निर्विकल्प अवस्था होती है, जहाँ चेतना-केवल शुद्ध चेतना रह जाती है। ऐसा अयोग-संवर भी तभी हो सकता है, जब साधक की पीठ अशुभ की ओर हो और मुख शुभ से आगे बढ़कर शुद्ध की ओर हो। साथ ही उसमें लक्ष्य के प्रति स्थिरता हो।' (यद्यपि छद्मस्थ होने से) साधक द्वारा की जाने वाली धर्मक्रियाओं में कुछ स्खलनाएँ हो सकती हैं, किन्तु 'विशेषावश्यकभाष्य' में उसे 'शुद्ध' प्रतिपादित करते हुए कहा है-“उपयोगयुक्त शुद्ध व्यक्ति के ज्ञान में कुछ स्खलनाएँ होने पर भी वह शुद्ध ही है। इसी प्रकार धर्मक्रियाओं में कुछ स्खलनाएँ होने पर भी उस शुद्धोपयोगी की सभी क्रियाएँ कर्मनिर्जरा की हेतु होती हैं।"२ आत्म-स्थिरता होने पर प्रत्येक प्रवृत्ति अयोग-संवर का रूप ले लेती है _इस प्रकार की भावक्रिया से सम्पन्न होने से प्रशस्त शुभ योग-संवर तो होता ही है, फलतः पापकर्म का बन्ध तो रुक जाता है, साथ ही उसमें आत्म-स्थिरता हो, अर्थात् लक्ष्य के प्रति स्थिरता हो तो वहाँ अयोग-संवर भी हो जाता है। बहुत-सी बार साधनाप्रिय व्यक्तियों के विचार और वाणी में तो सूझ-बूझ होती है, किन्तु जहाँ व्यक्तिगत स्वार्थ या लोभ अथवा अहंकार आ जाता है, वहाँ वे तुरंत मोहावेश के अधीन होकर आत्म-स्थिरता खो बैठते हैं। वहाँ वे आत्मीयतापूर्ण विचार और वाणी को भूलकर अन्तर में कपट की धारा में बह जाते हैं। जिसके विचार में १. 'श्री अमर भारती', फरवरी १९९५ के अंक में प्रकाशित 'चैतन्य की तीन धाराएँ' से भावांश ग्रहण, पृ. ६-७ २. उवउत्तस्स उ खलियाइयं पि सुद्धस्स भावओ सुद्धं । साहइ तह किरियाओ, सव्वाओ निज्जरफलाओ॥ -विशेषावश्यकभाष्य ८६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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