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________________ * १४० * कर्मविज्ञान : भाग ७ * भगवान महावीर ने कहा-"जब तुम चलते हो, तब मन को इन्द्रिय-विषयों और स्वाध्याय से हटा लो। एकमात्र चलने का ही ध्यान रखो।" भावक्रिया तभी होती है, जब चेतना और क्रिया एक ही दिशा में चले। दोनों एकरस-से हो जाएँ। अगर . चेतना अलग दिशा में जा रही है और क्रिया पृथक दिशा में, तो वहाँ द्रव्यक्रिया होगी। शरीर का कोई अवयव चले तो उसके साथ-साथ चेतना भी चले। वचन के साथ भी चेतना जुड़े और मन के साथ भी, तभी वह वाणी और मन की क्रमशः भावक्रिया कहलाएगी। अन्यथा, वाणी से कुछ बोला जा रहा है और चेतना दूसरी दिशा में भटक रही है, वहाँ भावक्रिया नहीं होगी। प्रायः देखा गयां हैं कि व्यक्ति. कान से सुनता है, पर उसका मन और कहीं दौड़ रहा है, वहाँ भावक्रिया कैसे होगी? भावक्रिया को ही यतनापूर्वक या उपयोगपूर्वक चर्या करना कहते हैं। भावक्रिया के लिए शब्द और अर्थ का बोध तथा चेतना का उपयोग ये तीनों बातें आवश्यक होती हैं। भावक्रिया की निष्पत्ति के लिए तीन तत्त्वों पर ध्यान देवें __ भावक्रिया को सम्पन्न करने हेतु तीन तत्त्वों पर ध्यान देना आवश्यक है(१) जानते हुए क्रिया या प्रवृत्ति करना, (२) वर्तमान में जीने का अभ्यास, और (३) क्रिया या प्रवृत्ति के समय जाग्रत रहना। जो भी क्रिया, चर्या, प्रवृत्ति की जाए उसे जानते हुए करने से व्यक्ति विवेकपूर्वक हितकर-अहितकर, कर्तव्य-अकर्तव्य, आवश्यक-अनावश्यक का निर्णय कर सकता है। इसीलिए 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है-“पठमं नाणं, तओ दया।'–पहले ज्ञान और फिर दया की प्रवृत्ति। सम्यग्दृष्टि प्रशस्त शुभ योगी साधक भी बोलना, चलना, सोना, जागना आदि समस्त क्रियाएँ जानते हुए होने से बोलते समय संयमपूर्वक बोलने से उसका बोलना वाक्योग-संवर बन जाएगा, उसका चलना भी संयम के हेतु से होने से वह गमनयोग-संवर बन जाएगा, आहार करना भी संयम-यात्रा के हेतु से होने से वह आहारयोग-संवर बन जाएगा। वर्तमान में जीने के अभ्यास में भावक्रिया इसलिए जरूरी है कि वह अतीत की बातों का स्मरण करके भविष्य की कल्पनाओं में उलझ जाएगा तो उस वर्तमान क्रिया से चेतना का वियोग हो जाएगा, योग नहीं रहेगा, चेतना भूत और भविष्य की दिशा में बह जाएगी। इसलिए भावक्रिया के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास करना चाहिए। भावक्रियापूर्वक क्रिया करते समय भी सतत आत्म-जागृति रखना १. द्रव्यक्रिया = अनुपयोगावस्था क्रिया। अर्थात् अनुपयोग अवस्था = अध्यवसाय शून्यता में की जाने वाली क्रिया द्रव्यक्रिया है। भावक्रिया-तक्रिया-परिणतः। अर्थात् उस क्रिया में परिणत हो जाना-लयलीन हो जाना भावक्रिया है। -सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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