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________________ ॐ योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल * १३९ ॐ के लिए सर्वप्रथम सोचना पड़ेगा कि मन-वचन-काया के द्वारा की जाने वाली यह प्रवृत्ति आवश्यक है या अनावश्यक है ? आत्मा के लिए हितकर है या अहितकर? अथवा आवश्यक है तो कब, कहाँ, कैसे, कितनी मात्रा में आवश्यक है? इस प्रकार मन, वचन और काया की प्रवृत्ति संवर-निर्जरारूप धर्म या नैतिकता के विरुद्ध है या अविरुद्ध ? तथैव अर्थ (जीवन के लिए आवश्यक पदार्थ जुटाने में) पुरुषार्थ की या काम-पुरुषार्थ (अमुक वस्तु को पाने की या अमुक इन्द्रिय-विषय का उपयोग करने की आवश्यकता है या नहीं? यदि अमुक अर्थ और काम-पुरुषार्थ जीवनयापन के लिए आवश्यक है तो वह धर्म से अविरुद्ध (अहिंसा-सत्यादि धर्म से अविरुद्ध), धर्मसम्मत या धर्मनियंत्रित है या नहीं? कर्ममुक्ति-परायण मुमुक्षु यतनाशील-साधक इन सब तथ्यों पर विचार करके ही आगे बढ़ेगा; तभी वह प्रशस्त शुभ योग-संवर उपार्जित कर सकेगा। फिर वह . यतनाचारी साधक जिस प्रवृत्ति या क्रिया को धर्मविरुद्ध या धर्ममर्यादा से नियंत्रित. समझेगा, 'आचारांगसूत्र' के निर्देशानुसार उसमें वह एकाग्र, तन्मय और दत्तचित्त, तन्निविष्टदृष्टि होकर करेगा। वह जिस समय प्रतिलेखन क्रिया करेगा, उस समय अन्यमनस्क नहीं रहेगा, वाणी-प्रयोग या वार्तालाप नहीं करेगा, न ही कायिक व्यर्थ चेष्टाएँ, अयतनायुक्त चेष्टाएँ करेगा। मन में उस क्रिया के पीछे किसी प्रकार की इहलौकिक-पारलौकिक फलाकांक्षा, सुखाकांक्षा, स्वार्थ, भय, प्रलोभन, यश-कीर्ति, अविवेक, लौकिक लाभ, गर्व, नियाणा (निदान), संशय, रोष या अबहुमान आदि दोषों से प्रेरित होकर नहीं करेगा।२ संयम और तप से आत्मा को भावित करता हुआ साधक या उपासक उक्त धर्मक्रिया को करेगा। इसी प्रकार प्रमार्जन, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, भिक्षाचर्या या साधुवर्ग या गृहस्थ श्रावक के लिए दान, शील, तप, भाव, गृहस्थ के लिए कृषि, गोपालन, सात्विक व्यवसाय आदि समस्त प्रवृत्तियाँ या धर्मक्रियाएँ भी उपर्युक्त समस्त दोषों से प्रेरित होकर नहीं करेगा। __ भावक्रिया और द्रव्यक्रिया : स्वरूप, अन्तर और निष्पत्ति का उपाय सम्यग्दृष्टि शुभ योग-संवर-साधक जो भी क्रिया या प्रवृत्ति करेगा, उस क्रिया के साथ चेतना को ओतप्रोत कर देगा। इसे ही जैनागमों में भावक्रिया कहा गया है। १. देखें-दशवैकालिकसूत्र ९, उ. ४ में तपसमाधि आचार समाधि का पाठ २. आवश्यकसूत्र में सामायिकव्रत के १० मन के दोष ३. तद्दिवीए, तम्मुत्तीए, तप्पुरकारे तस्सन्नी, तन्निसेवणे अभिभूय अदक्खू । -आचांराग, श्रु. १, अ. ५, उ. ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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