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१३८ कर्मविज्ञान : भाग ७
इतना ही नहीं, धर्मध्यान, धर्मक्रिया या सत्कार्यों के करने से या अवसर आने पर निष्काम या निःस्वार्थ पुण्य कार्य करने से भी टालमटूल करते हैं या कतराते हैं।
इस प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति, दोनों तरफ अति असन्तुलन, निरंकुशता, लक्ष्यहीनता या उपेक्षा आदि दोषों के कारण, न तो त्रिविध योगों के द्वारा पुण्य ही उपार्जन हो पाता है और न ही कर्मास्रव का निरोधरूप संवर ही ।
योगों को संतुलित करने हेतु स्थिरता का अभ्यास करो
अतः मन, वचन और काया की प्रवृत्ति - निवृत्ति को संतुलित करने के लिए 'आवश्यकसूत्र' में प्रत्येक मुमुक्षु साधक के लिए 'कायोत्सर्गसूत्र' के पाठ में कहा गया है- “ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि।” अर्थात् (जब तक. मैं कायोत्सर्ग में हूँ) तब तक शरीर से स्थिर होकर, वाणी से मौन होकर तथा मन से ध्यानस्थ (एक अध्यात्मयोग्य वस्तु में एकाग्र ) होकर अपने आप का व्युत्सर्ग ( आत्म - व्युत्सर्जन) करता हूँ। इसका फलितार्थ यह है कि दिन और रात के चौबीस घंटों में कम से कम एक या आधा घंटा तो शरीर को स्थिर रखने का अभ्यास करना चाहिए। उस समय अन्य सब कुछ प्रवृत्तियों को छोड़कर शरीर पर से ममता-मूर्च्छा, अहंता-आसक्ति आदि का त्याग करके एकमात्र परमात्मा या शुद्ध आत्मा में समर्पित हो जाना चाहिए । अतः काया का इस प्रकार उत्सर्ग करने से वह बिलकुल शान्त, स्थिर और संतुलित रह सकता है। इसी प्रकार वचनयोग की स्थिरता के लिये हम दिन और रात में कम से कम एक घंटा स्वरयंत्र को निष्क्रिय रखें, वचन उत्पन्न न होने दें, मौन रहें; वाणी को शान्त रखें, अभाषक रहें। ऐसा अभाषक जो बोल तो सकता है, पर बोलता नहीं है । मनोयोग की स्थिरता इन दोनों से ही कठिन है। अगर हम मन-मस्तिष्क को काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, राग, द्वेष, आर्त्त - रौद्रध्यान आदि के विचारों से खाली रखने का प्रतिदिन कम से कम १५ से ३० मिनट तक अभ्यास करें, हम केवल ज्ञाता - द्रष्टा बनकर रहें तो मन का भी स्थिरीकरण तथा विचारता और निर्विचारता में सन्तुलन हो सकता है। योगदर्शन और गीता में मन को वश करने के लिए दो उपाय बताये हैं - अभ्यास और वैराग्य । '
प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ यतना को सम्पन्न करने की विधि
पाँचों इन्द्रियों के विषयों से भी विरक्ति या उनके प्रति राग-द्वेष न करने से इन्द्रियाँ आत्म- मुखी होकर यतनापूर्वक विषयों में प्रवृत्त हो सकती हैं । परन्तु यतना १. (क) 'प्रेक्षाध्यान', मई १९८७ के अंक में प्रकाशित 'कैसे जीएँ ?' लेख से भाव ग्रहण, पृ. ६ (ख) अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते । - भगवद्गीता ६/३५
(ग) अभ्यास - वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।
-योगदर्शन, पाद १, सू. १२
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