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ॐ योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल 8 १३७ *
चिन्तन भी नहीं करता। इसी प्रकार कई लोग अपनी वाणी को वाचालता, मौखर्य, व्यर्थ बकवास, निन्दा, चुगली, कलह-वादविवाद, गपशप, अहंकार पोषण में अथवा अनावश्यक ही बोलते रहने में बिना प्रयोजन ही किसी के विषय में झूठी-सच्ची आलोचना-प्रत्यालोचना करते रहने में अथवा भाषणबाजी-नारेबाजी करने-कराने में या थोड़ी-सी पीड़ा या कष्ट होने या मनोऽनुकूल व्यक्ति या परिस्थिति न मिलने पर जोर-जोर से बड़बड़ाने, चिल्लाने या हल्ला करने में वाक्शक्ति अनावश्यक बर्बाद करते रहते हैं अथवा वे स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा (राजनैतिक विकथा) और देशकथा (राष्ट्रान्धता, प्रान्तीयता आदि विकथा) में अपनी वाणी का अनावश्यक व्यय करते रहते हैं। इससे दुष्कर्मबन्ध तो होता ही है, हिंसादि अनेक पाप-चेष्टाएँ वैर-परम्परा को जन्म देती हैं। 'भवभावना' नामक ग्रन्थ में भुवनभानुकेवली के चरित्र में उल्लेख है कि जिस जीव ने मनुष्य-जन्म पाकर चतुर्दशपूर्वधर महर्षि बनने के पश्चात् ज्ञान का रस भूलकर राजकथा आदि विकथाओं में पड़कर तथा उपर्युक्त प्रकार से वाणी का व्यर्थ व्यय किया उसे मरकर निगोद आदि एकेन्द्रिय जीवों में जन्म लेना पड़ा। इससे स्पष्ट है कि वचनयोग की शक्ति का दुरुपयोग तथा अपव्यय करने से कितना अधःपतन होता है।
इसी प्रकार वचनयोग के द्वारा वाचना, पृच्छा, पर्यटना, धर्मकथा तथा सदुपदेश देने में, सत्परामर्श देने में, सहानुभूति प्रगट करने में तथा हिंसा आदि हो रही हो उस समय में मूक होकर बैठ जाना भी अच्छा नहीं है, जबकि मौन करके भी कई लोग इशारों से या लिखकर वाणी से होने वाले कई कार्य करते हैं। अतः शरीरधारी के लिए वाणी का असंतुलन भी ठीक नहीं है और काया से भी आज का मनुष्य प्रायः धन, सम्मान, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, अनुकूल परिस्थिति या वस्तु को पाने के लिए नींद, भूख, थकान आदि का विचार किये बिना अत्यधिक भाग-दौड़ करता रहता है, सुबह से लेकर रात को सोने तक प्रायः कई सभा-सोसाइटियों, कई प्रचार सभाओं में, कई जगह सभापति, मुख्य अतिथि बनने या प्रतिष्ठा पाने के लिए जहाँ-तहाँ दौड़-धूप करता रहता है। रात को नींद भी सुख से नहीं ले पाता। ऐसी अतिप्रवृत्ति वर्तमान युग में कई साधु-साध्वियों में भी प्रविष्ट हो चुकी है। उन्हें अपनी साधना में विक्षेप पड़ने का कोई विचार नहीं होता। येन-केनप्रकारेण प्रसिद्धि, भक्तों की भीड़, प्रदर्शन और आडम्बर देखकर उनका मन सन्तुष्ट हो उठता है। काया से जहाँ अधिकांश लोग अतिप्रवृत्ति में पड़े हैं, वहाँ कई लोग आलसी, अकर्मण्य और निठल्ले होकर पड़े रहते हैं, आरामतलब बनकर सोये रहते हैं। वे आवश्यक कार्यों से, कर्तव्यों और दायित्वों से जी चुराते हैं, १. 'दिव्यदर्शन', दि ३-३-९० के अंक से भाव ग्रहण, पृ. १७३
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