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________________ * १३६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ® अपने मन-वचन-काया को जाने देता है। 'भगवद्गीता' के इस योग-सन्तुलन सूत्र को वह दृष्टिगत रखता है-न तो संसार के पदार्थों का अत्यधिक उपभोग करने वाले का योग सिद्ध होता है और न ही (शरीर के रहते) सर्वथा उपभोग न करने वाले का, तथैव न अतिशमन करने वाले का और न अत्यन्त जागने वाले का योग सिद्ध होता है। योग उसी (शरीरधारी) के लिए दुःखनाशक होता है, जो युक्त (उपयोगयुक्त) होकर (यथायोग्य) आहार-विहार करता है, कर्मों (मन-वचन-काया से होने वाली प्रवृत्तियों) में भी यथायोग्य (उपयुक्त) चेष्टाएँ करता है तथा शयन और जागरण भी जिसका उपयुक्त (यथायोग्य) होता है।' त्रियोगों की प्रवृत्ति-निवृत्ति का सन्तुलन : शुभ योग-संवर के लिए आवश्यक आरोग्यविज्ञान, मनोविज्ञान और कर्मविज्ञान तीनों दृष्टियों से यह संतुलन या यतनायुक्त जीवन, उपयोगयुक्त जीवन स्वस्थ, संतुलित, दुःखनिवारक, पापकर्मविनाशक एवं पुण्यबन्धकारक अथवा शुभ योग-संवर में स्थिर रखने वाला है। वर्तमान युग में इन त्रिविध योगों का असंतुलन ही अनेक समस्याओं और पापकर्मों को तथा दुःखों को उत्पन्न करता है। यदि मन के विचार और निर्विचार तथा शरीर और वाणी की सक्रियता और निष्क्रियता का जीवन में सन्तुलन हो जाए तो बहुत से आम्रवों का निरोध, दुःखों और दुश्चिन्ताओं का निवारण अनायास ही कर सकता है। यथार्थ जीवन जीने का नियम भी यही है कि मनुष्य अपने जीवन में मन से विचार और निर्विचार का, वाणी से बोलने और न बोलने का तथा काया से क्रिया करने-न करने का सन्तुलन रखे। मनुष्य जब इन तीनों योगों में असंतुलित होकर जीता है, तब अनेक रोग, शोक, चिन्ता, उद्विग्नता, दुःख, दैन्य, कर्मबन्धनों आदि से घिर जाता है। वर्तमान युग का मानव या तो बहुत ही सोचता है, जिससे कोई लाभ नहीं है, बल्कि जीवनी-शक्ति का ह्रास ही अत्यधिक है। वह उन सब ऊलजलूल बातों को सोचकर, पुरानी बातों का स्मरण करके, व्यर्थ की कल्पनाएँ करके, बेसिर-पैर का चिन्तन करके अनावश्यक विचारों में अपनी सारी जीवनी-शक्ति का अपव्यय कर डालता है अथवा अपनी अशुभ प्रवृत्तियों को ढर्रे से किये चला जाता है, उनमें हिंसा-अहिंसा का, सत्य-झूठ का या अच्छाई-बुराई का कोई विचार नहीं करता है, ऐसा विचारमूढ़ व्यक्ति यथार्थ १. नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति, न चैकान्तमनश्नतः। न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतोनैव चार्जुन ! युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥ -भगवद्गीता ६/१६१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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