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________________ ॐ योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल * १३५ * इससे कुछ आगे बढ़कर शुभ योगी शरीर की शक्ति का किंचित् मूल्यांकन कर लेता है, परन्तु उसकी दृष्टि सम्यक नहीं है। वह या तो सिर्फ ज्ञान बघारता है, आचरण में बिलकुल नहीं उतारता। इतना ही नहीं, कतिपय व्यक्ति आत्म-दृष्टि से आत्म-स्वरूप रमणता या भेदविज्ञान की दृष्टि से कोई विचार न करके जप, तप, धर्मक्रिया, दान, शील, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान, त्याग, कष्ट-सहन आदि इहलौकिक-पारलौकिक वांछा पूर्ति या प्रशंसा-कीर्ति-प्रसिद्धि-प्रतिष्ठा, नामबरी आदि की दृष्टि से ही करते हैं। ऐसे लोग भी शरीररूपी बहुमूल्य हीरे का सही मूल्यांकन न करके थोड़ी-सी स्वार्थलिप्सा के कारण बहुत-सा आध्यात्मिक लाभ खो बैठते हैं। तीसरा सम्यग्दृष्टि प्रशस्त शुभ योगी सम्यग्ज्ञान के प्रकाश में मनुष्य शरीररूपी बहुमूल्य हीरे का यथार्थ मूल्यांकन करता है। स्व-पर-कल्याण की दृष्टि से तप, त्याग, व्रत, नियम, संयम, वैराग्य, श्रमप्रभक्ति, रत्नत्रय के आचरण आदि में उसका पूर्ण यतनापूर्वक उपयोग करता है। प्रशस्त शुभ योगी तन-मन का आध्यात्मिक मूल्यांकन करके शुभ योग-संवर से शुद्धोपयोग में प्रवृत्त होकर यदा-कदा अयोग-संवर भी कर लेता है, निर्जरा भी। शरीर का आध्यात्मिक मूल्यांकन इस प्रकार सम्यग्दृष्टि शुभ योग-संवर-साधक शरीर का आध्यात्मिक दृष्टि से मूल्यांकन करता है। वह जानता है, शरीर के माध्यम से विश्व में बड़े से बड़ा पराक्रम किया जा सकता है, वह अतीव उपयोगी और सशक्त माध्यम है। अतः वह शरीर की शक्तियों को जानता है, शक्ति-स्रोतों को भी पहचानता है और उसको आध्यात्मिक दिशा में मोड़ने के लिए शरीर की संचित शक्तिशाली प्राण ऊर्जा को नीचे के रास्ते से न बहाकर उसको संरक्षित करके नीचे से ऊपर की ओर ले जाता है। यही शुभ योग-संवर में स्थिर होकर अयोग-संवर की दिशा में गति-प्रगति करने का एक अचूक मार्ग है। सम्यक्त्वयुक्त शुभ योग-संवर की स्थिरता के लिए __इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न शुभ योग-संवर में स्थिर रहने का सर्वोत्तम उपाय भगवान महावीर ने यह बताया कि प्रत्येक प्रवृत्ति यतनापूर्वक करो, चाहे वह प्रवृत्ति मन की हो, चाहे वचन की हो, चाहे काया की। यतना का अभ्यास करने वाला या यतनाचार में अभ्यस्त साधक गृहस्थ हो या साधु दोनों ही अवस्थाओं में मन, वचन और काया के योग (प्रवृत्ति) को न तो अतियोग होने देता है, न ही बिलकुल ही इनकी प्रवृत्तियों को निश्चेष्ट बनाकर मन ही मन संकल्प-विकल्प करता है और न संयम से विपरीत मार्ग में अथवा आत्म-हित के विरुद्ध कार्य में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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