________________
ॐ १३४ * कर्मविज्ञान : भाग ७ *
मानव-शरीर में शक्ति के तीन स्थान
मानव-शरीर में शक्ति के तीन स्थान हैं, जिन्हें हम ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक कह सकते हैं। ऊर्ध्वलोक का केन्द्र मस्तिष्क है, मध्यलोक का है-हृदय और अधोलोक का केन्द्र है-नाभि। ये तीन मानव-शक्ति के स्रोत हैं। अविवेकी तथा असम्यग्दृष्टि व्यक्ति अपनी इन शक्तियों को ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित कर रहा है, जबकि विवेकी शुभ योगी सम्यग्दृष्टि अपनी इन शक्तियों को नीचे से ऊपर की ओर प्रवाहित करता है। अर्थात् वह मानव-शरीर की महाशक्तियों को बहुत ही मूल्यवान समझकर नीचे की शक्ति = काम-शक्ति को मध्यम शक्ति = श्रद्धा-उत्साह भक्ति आदि की शक्ति के साथ मिलाकर ऊपर की सर्वोपरि सम्यग्ज्ञान शक्ति के साथ एकात्मभूत कर देता है। आशय यह है कि नीचे की शक्ति सर्वोपरि शक्ति के साथ मिलाने से वह महती बन जाती है। सम्यग्दृष्टि प्रशस्त शुभ योगी ऐसा करके अयोग-संवर की स्थिति भी यदा-कदा प्राप्त कर लेता है।
ऊपर का लोक मस्तिष्क से लेकर कण्ठ तक है, जिसमें शुद्ध चेतना-ज्ञान व बुद्धि का विकास होता है। जिससे परमार्थ, तत्त्वज्ञान, आनन्द आदि की क्षमताएँ उत्पन्न होती हैं। यह सर्वोपरि केन्द्र है। मध्यलोक हृदय से लेकर नाभि तक है, जिसमें श्रद्धा, भक्ति, उत्साह, मानसिक एवं भावात्मक संस्थान, दृढ़ता, वैराग्य, तप, त्याग, संयम की शक्ति निहित है। तीसरा अधोलोक नाभि से लेकर गुदा तक है। इस नीचे के स्रोत में काम-शक्ति का निवास है, इस केन्द्र में कामना, नामना, वासना, स्पृहा, आकांक्षा तथा हिंसा, असत्याचरण, चौर्य आदि की भावना तथा आर्तध्यान, रौद्रध्यान आदि की शक्ति है। तीन कोटि के व्यक्ति ____ मानव-जन्म या मनुष्य-शरीर एक बहुमूल्य हीरा है। अज्ञानी, मिथ्यात्वी अशुभ योगी तो इसका यथार्थ मूल्यांकन ही नहीं कर पाता। इसलिए गतानुगतिक अन्धविश्वासी, अन्धपरम्परानुगामी मिथ्यात्वी एवं अशुभ योगी इस शरीर का यथार्थ मूल्य न समझकर विलासिता में ऐश-आराम में सैर-सपाटों में पर-निन्दाचुगली में, हिंसा, झूठ, चोरी, बेईमानी, ठगी, धूर्तता, छलकपट, अति लोभ, तुच्छ और तीव्र स्वार्थपूर्ति में, आर्त-रौद्रध्यान में, दूसरों में लड़ने-भिड़ने में, युद्ध, कलह, आतंक, वैर-विरोध, संघर्ष आदि में अपनी काययोग शक्तियों का दुर्व्यय कर डालता है। सघन-मोहबुद्धि के अनुसार वह अशुभ योग में प्रवृत्त होकर अशुभ कर्मबन्: कर लेता है।
१. 'मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता' से यत्किंचिद् भाव ग्रहण, पृ. २१-२२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org