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* योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल 8 १३३ ॐ
अनुपयोग का तथा उनसे होने वाले आस्रव और संवर का, बन्ध, निर्जरा का तथा मोक्ष का भी मूल्यांकन यही करता है। साथ ही शरीर (मन-बुद्धि द्वारा) स्वयं अनित्य है, नाशवान् है, मल-मूत्रादि का पिण्ड है, हड्डियों का ढाँचा है; इसमें वात, पित्त, कफ, नाड़ी संस्थान, नसें आदि हैं। फिर भी इस शरीर-यंत्र से ही शारीरिक, वाचिक, मानसिक आदि तमाम प्रवृत्तियाँ होती हैं, हो सकती हैं। अगर एक शरीर न हो तो हम न तो जीवन के साथ लगे हुए कर्मबन्धनों को तोड़ने का मन से विचार कर सकते हैं और न ही उत्कृष्ट तप, त्याग, परीषह और उपसर्ग को समभावपूर्वक सहन, चारित्र-पालन, प्राणिमात्र पर समभाव, प्रत्येक परिस्थिति में सम रहने की दृढ़ता कर सकते हैं, न ही बुद्धि से आत्म-भाव में स्थिर रहने का, अनावृत आत्म-गुणों को, आत्म-शक्तियों को आवृत करने का पराक्रम कर सकते हैं, न ही ज्ञाता-द्रष्टा रहकर आने वाले कर्मों के आकर्षण (आम्रवों) के कारणभूत राग-द्वेषादि को वहीं रोककर संवर धर्म अर्जित कर सकते हैं। शरीर में ही वह शक्ति है कि व्यक्ति एक ही स्थान पर तीन-चार घंटे ही नहीं, तीन-चार मास तक स्थिर होकर बैठ सकता है, शरीर रहते हुए भी वह देहातीत, देहाध्यास से मुक्त अवस्था प्राप्त कर सकता है। अतः सम्यग्दृष्टि प्रशस्त शुभ योगी शरीर की तमाम शक्तियों का आध्यात्मिक मूल्यांकन करता है और उनका दोहन करके उन शक्तियों का शुद्धोपयोग के रूप में उपयोग करके अयोग की स्थिति प्राप्त कर लेता है। इसी मानव-शरीर के द्वारा संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करके सर्वकर्ममुक्ति (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। विवेकी सम्यग्दृष्टि और अविवेकी असम्यग्दृष्टि संसार
परिशोषित और परिपोषित __ मानव-शरीर में असीम शक्तियाँ हैं। अविवेकी और असम्यग्दृष्टि उन शक्तियों को पतन के विपरीत मार्ग में बहाकर घोर कर्मों का आस्रव और बन्ध कर लेता है, जबकि विवेकी सम्यग्दृष्टि उन्हीं शक्तियों को उत्थान के शुद्ध मार्ग की ओर मोड़कर उनसे कर्मों का निरोध (संवर) और क्षय (निर्जरा) कर लेता है। 'अध्यात्मसार' में ठीक ही कहा है-“जिस शरीर से अविवेकी पुरुष संसार-मार्ग को परिपुष्ट कर लेता है, उसी शरीर से विवेकी पुरुष संसार के मार्ग का परिशोषण (ह्रास) कर लेता है।"२
१. 'मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. २० २. येनैव देहेन विवेकहीनाः संसारमार्ग परिपोषयन्ति।
तेनैव देहेन विवेकभाजः संसारमार्ग परिशोषयन्ति॥
-अध्यात्मसार
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