SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ १३२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * सर्वप्रथम तो प्रशस्त शुभ योगी को मन, वचन और काया इन तीनों का वास्तविक यथार्थ मूल्यांकन निश्चय और व्यवहारदृष्टि से करना आना चाहिए। शरीर का मूल्यांकन और प्रयोग : सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि द्वारा सम्यग्दृष्टि प्रशस्त शुभ योगी भी शरीर का मूल्यांकन और प्रयोग करता है और मिथ्यादृष्टि अविवेकी भी। मिथ्यादृष्टि अविवेकी जहाँ शरीर को रूप, रंग, चमड़ी, बाहरी स्थूलता-सुडौलपन, बाहरी बनावट, अंगोपांगों की रचना आदि स्थूल बाह्यदृष्टि से देखता-जानता और तोलता है, वह आसक्तिपूर्वक, सांसारिक विषयभोगों में, अच्छा और प्रभावशाली दिखने में तथा अहंकार-ममकारपूर्वक व्यवहार करने में शरीर का प्रायः उपयोग करता है। ऐसा अविवेकी असम्यग्दृष्टि शरीर से निर्बल, कालाकलूटा, दुबला-पतला एवं अप्रभावशाली होने पर अपने आप को दीन-हीन, निर्बल, सत्त्वहीन समझता है और शरीर से बलिष्ठ, लंबा-चौड़ा, तगड़ा, गोरा, बाह्यदृष्टि से प्रभावशाली समझकर गर्व स्फीत होकर स्वयं गौरवग्रन्थी एवं अहंकार-ममकार से युक्त हो जाता है। दुर्बल मानने वाला दूसरों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष आदि से अभिभूत हो जाता है और बलिष्ठ मानने वाला, क्रोधादि एवं आसिक्त आदि से अभिभूत होता है। ' शरीर का मूल्यांकन : विभिन्न दृष्टि वाले व्यक्तियों द्वारा इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि-सम्यग्ज्ञान से युक्त मानव बाह्यदृष्टि से शरीर को रक्त, माँस, मज्जा, अस्थि, वीर्य आदि सप्त धातुओं से तथा अनेक रसायनों के योग से निर्मित हाथ, पैर, मस्तक, हृदय, फेफड़ा, नस-नाड़ियाँ, नेत्र आदि पाँचों इन्द्रियों, मन आदि अवयवों से युक्त मानता है, किन्तु बलिष्ठ या दुर्बल आदि होने पर अपने आप को गुरुता या लघुता की दृष्टि से नहीं आँकता। किन्तु वह यह भी जानता है कि आत्मा को धर्म-पालन करने के लिए इसे सशक्त और सुदृढ़ रखकर आध्यात्मिक विकास करने के लिए तथा हाथ, पैर, इन्द्रियाँ, मन, वचन आदि को संयम में रखकर इनसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का आचरण करके कर्मों से मुक्त होने के लिए तथा नये आते हुए कर्मों को रोकने के लिए शरीर की सबसे अधिक आवश्यकता है। शरीर है तो मन, बुद्धि, हृदय, अंगोपांग, इन्द्रियाँ आदि मिलते हैं और अपना-अपना कार्य करते हैं। शरीर नष्ट हो जाता है तो ये सब भी निश्चेष्ट हो जाते हैं, कुछ भी नहीं कर सकते। सम्यग्दृष्टि प्रशस्त शुभ योगी समझता है कि इस जगत् में कोई भी पदार्थ शरीर से बढ़कर मूल्यवान नहीं है। शरीर ही (शरीरान्तर्गत मन-बुद्धि ही) संसार के सभी मूल्यवान समझे जाने वाले पदार्थों का मूल्यांकन करता है, उनके उपयोग, प्रयोग और सदुपयोग-दुरुपयोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy