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________________ 8 योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल ॐ १३१ * से होने वाले अशुभ कर्मों का आगमन) कम हो जाता है और कषायों की तथा मोहकर्म की उतनी अल्पता हो जाने से शुद्धोपयोग में उतना उपयोग होने से असंख्यातगुणी निर्जरा हो जाती है। उसके आगे अणुव्रती (देशविरति) श्रावक, सर्वविरति साधु, अनन्तानुबन्धी कषाय के विसंयोजक, दर्शनमोह-क्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह तथा वीतराग जिन सयोगी केवली के उत्तरोत्तर क्रमशः कषायों की उपशान्तता तथा क्षीणता बढ़ जाने से शुद्धोपयोग में तीव्रता आने से असंख्यात-असंख्यातगुणी निर्जरा बढ़ती जाती है और योग (मन-वचन-कायप्रवृत्ति = क्रिया) भी उत्तरोत्तर अल्पतर-अल्पतम होते जाते हैं और अन्त में चौदहवें गुणस्थान में जाकर योगों का सर्वथा निरोध होने से पूर्ण अयोग-संवर हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि भगवान महावीर की दृष्टि में उत्कृष्ट शुभ योग गीता की दृष्टि से उत्कृष्ट कर्मयोग (प्रशस्त शुभ योग या शुभ योग-संवर) तक पहुँचकर ही नहीं रुक जाता है। वह मार्ग है, उसके अवलम्बन से उत्तरोत्तर योगों (क्रियाओं = कर्मों) को कम करते-करते पूर्ण अयोग-संवर तक पहुँचना ही अभीष्ट है। 'बृहत्कल्पभाष्य' में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है-“जैसे-जैसे मन-वचन-काया के योग (प्रवृत्तियाँ = क्रियाएँ) अल्पतर होते जाते हैं, वैसे-वैसे (आसवोत्तरकालिक) बन्ध भी अल्पतर होता है। १४वें गुणस्थान में पहुँचकर योगों का पूर्णतः निरोध हो जाने से (पूर्ण अयोग-संवर या उत्तरोत्तर असंख्यातअसंख्यातगुणी निर्जरा = कर्मक्षय हो जाने से) आत्मा में बन्ध (आम्रवों) का सर्वथा अभाव हो जाता है, जैसे कि समुद्र में रहे हुए निश्छिद्र जलयान में जलागमन का सर्वथा अभाव हो जाता है।"२ 'निशीथभाष्य' में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है-"(प्रत्येक प्रवृत्ति = योग में) यतनाशील साधक का कर्मबन्ध अल्प-अल्पतर होता जाता है और निर्जरा तीव्र-तीव्रतर। अतः वह शीघ्र ही सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।"३ प्रशस्त शुभ योगी त्रियोग को प्रशस्त शुभ योग में स्थिर रखने के लिए क्या करे ? __ अब हमें यह देखना है कि प्रशस्त शुभ योग कैसे और कब कितना प्रयोग करने से टिका रह सकता है? १. सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्त-वियोजक-दर्शनमोह-क्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपकक्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येय-गुणनिर्जराः। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ४७ २. जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिद्दपोतस्स व अंबुणाय॥ -बृहत्कल्पभाष्य, गा. ३९२६ ३. अप्पो बंधोजयाणं, बहुणिज्जरत्तेण मोक्खो तु। -निशीथभाष्य ३३३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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