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________________ * १२२ * कर्मविज्ञान : भाग ७ * संयत को शुभ योग की अपेक्षा अनारम्भी कहा गया है। अनारम्भ संवर है, इसलिए शुभ योग-संवर सिद्ध होता है। ‘उत्तराध्ययनसूत्र' के २९वें अध्ययन के ७वें बोल में भगवान से आत्म-गर्दा के फल के विषय में पूछने पर उन्होंने फरमाया-“आत्म-गर्दा से जीव अपुरस्कार (आत्म-नम्रता) को प्राप्त करता है, आत्म-नम्रता को (अर्थात् आत्म-गर्व का परित्याग करके आत्म-लघुता को) प्राप्त हुआ जीव अप्रशस्त (अशुभ) योगों से निवृत्त हो जाता है और फिर वह प्रशस्त (शुभ) योगों को प्राप्त करता है। प्रशस्त योगों से युक्त अनगार अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि के घातक घातिकर्म के पर्यायों का क्षय कर देता है।"२ प्रस्तुत सूत्र में शुभ योग से अनन्त घातिकर्मों के क्षय होने का कथन, उत्कृष्ट संवर होने की बार सूचित करता है। यह उत्कृष्ट शुभ योग-संवर ही है। इसी सूत्र के अध्ययन २९ वे ५२वें बोल में कहा गया है-“योग-सत्य से अर्थात् मन-वचन-काया को सत्य योग, के (शुभ योग के) रूप में प्रवर्तित करता हुआ जीव मन-वचन-काया के योगों (व्यापारों) को विशुद्ध कर लेता है। योगों की विशुद्धि (दोषरहितता) का कारण यहाँ सत्य योग = शुभ योग को बताकर प्रकारान्तर से शुभ योग-संवर को परिलक्षित किया है। इसी अध्ययन के ५५वें बोल में कहा गया है-“कायगुप्ति से अर्थात् (नीचे की भूमिका में) अशुभ योग के निरोध से संवर (शुभ योग-संवर) को प्राप्त करता है और फिर उक्त संवर के द्वारा कायगुप्तियुक्त जीव सब प्रकार के पापासवों का निरोध कर लेता है।'' यहाँ भी आंशिक या पारिस्थितिक कायगुप्ति से शुभ योग-संवर सूचित किया गया है। २९वें अध्ययन के ५६वें बोल में बताया गया है-“मनः समाधारणा (अर्थात् मन को समाधि में स्थापित करने) से (शुद्ध धर्म में) एकाग्रता की प्राप्ति होती है। एकाग्रता-प्राप्तं जीव ज्ञान के पर्यायों को उपार्जित करता है, ज्ञानपर्याय प्राप्त करके जीव सम्यक्त्व को विशुद्ध कर लेता है और मिथ्यात्व की निर्जरा कर लेता है। ५७वें बोल में बताया है कि वचन समाधारणा (सदैव स्वाध्याय में वचनयोग को स्थापित करने) से अथवा वचनयोग की सम्यक् १. तत्थ णं जे ते संजया, ते दुविहा पन्नत्ता, तं.-पमत्त-संजया य अप्पमत्त-संजया य। तत्थ णं जे ते अप्पमत्त-संजया, ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव अणारंभा। तत्थ णं जे ते पमत्त-संजया ते सुहं जोगं पडुच्च नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव अणारंभा। -भगवतीसूत्र, श. १, उ. १, सू. १६ २. (प्र.) गरहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? (उ.) गरहणयाए अपुरक्कारं जणयइ। अपुरक्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहिंतो जोगेहितो नियत्तेइ, पसत्थेय पडिवज्जइ। पसत्थ-जोग-पडिवन्ने य णं अणगारे अण्णंत-घाइ-पज्जवे खवेइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, बोल ७ विवेचन, पृ. १०५ ३. जोग सच्चेणं जीवे जोगं विसोहेइ। -वही, अ. २९, सू. ५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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